ज्ञानेश्वरी पृ. 61

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-2
सांख्य योग


दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय ।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा: फलहेतव: ॥49॥
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ॥50॥

हे अर्जुन! चित्त का समत्व ही योग का सार है, जहाँ मन और बुद्धि का ऐक्य होता है। जब उस बुद्धियोग के विषय में सोचा जाता है, तब यह दृष्टिगोचर होने लगता है कि वह कर्मकाण्ड उससे बहुत ही छोटे दर्जे का है; परंतु (प्रारम्भ में) वही सकामकर्म जब किये जाते हैं, तब निष्काम कर्मयोग की प्राप्ति हो जाती है। क्योंकि ऐसे करते-करते सकाम से कर्तृत्वमद और फलास्वाद छोड़ने के बाद शेष जो कर्म रहता है, वही सहजयोग की स्थिति है। इसलिये बुद्धियोग ही मजबूत पाया (नींव) है। उसके ऊपर हे अर्जुन! तुम अपना मन स्थिर कर और फल की आशा का त्याग कर। जो लोग इस बुद्धि-योग में प्रवृत्त हो जाते हैं, वे ही इस संसार से पार उतरते हैं और फिर न तो उन्हें पाप बाँध सकते हैं और न पुण्य ही।[1]


कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्ता मनीषिण: ।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ता: पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥51॥

ऐसे लोग यदि कर्म करते भी हैं तो भी वे कभी कर्मफल में आसक्त नहीं होते और यही कारण है कि वे जन्म और मरण के चक्कर में भी नहीं पड़ते। इसके बाद हे धनुर्धर! बुद्धि-योग के सिद्ध होते ही वे लोग सारे-के-सारे दुःखों से रहित होकर यह परम अविनाशी ब्रह्मानन्द से ओतप्रोत पद प्राप्त कर लेते हैं।[2]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (273-277)
  2. (278-279)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः