ज्ञानेश्वरी पृ. 62

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग


यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥52॥

जब तुम इस मोह का त्याग कर दोगे और जब तुम्हारे मन में वैराग्य का आविर्भाव हो जायगा, तब तुम भी ऐसे ही हो जाओगे। फिर तुम्हें विशुद्ध और गहन आत्मज्ञान प्राप्त हो जायगा और तुम्हारा मन स्वतः वासनाओं से रहित हो जायगा। उस अवस्था में ऐसी समस्त कल्पनाएँ शान्त हो जायँगी कि हम कुछ और भी जानें अथवा जो कुछ हम जान चुके हैं, वह भूल जायँ।[1]


श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥53॥

इन्द्रियों की संगति से जिस मति में चंचलता होती है, आत्मस्वरूप की प्राप्ति होने पर वह मति फिर स्थिर हो जाती है। इस प्रकार जब तुम्हारी बुद्धि समाधि-सुख से निश्चल हो जायगी, तभी तुम्हें सही मायने में सम्पूर्ण योग की स्थिति प्राप्त होगी।[2]


अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधी: किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥54॥

तब अर्जुन ने कहा-“हे देव! अब मैं आपसे इन्हीं सबके विषय में कुछ पूछना चाहता हूँ। आप कृपापूर्वक मुझे बतलावें।” श्रीकृष्ण ने कहा-“हे किरीटी! तुम्हारे मन में जो प्रश्न उचित जान पड़े, वह तुम प्रसन्नतापूर्वक पूछो।” श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर पार्थ ने पूछा-“हे श्रीकृष्ण! स्थितप्रज्ञ किसे कहते हैं? उसे कैसे पहचानना चाहिये? बस यही बात आप मुझे बतला दें। जिसे लोग स्थिर बुद्धि कहते हैं, जो समाधि सुख का निरंतर अनुभव लेता है, उसकी पहचान क्या है? हे देव! हे लक्ष्मीपति! जो अखण्ड समाधि का सुखोपभोग करता है, वह किस स्थिति में रहता है? उसका बर्ताव किस तरह होता है? और उसका स्वरूप कैसा होता है? आप कृपा कर ये सब-की-सब बातें मुझे बतलावें।” इस पर परब्रह्म के अवतार तथा षड्गुणों के अधिष्ठान श्रीनारायण ने जो कुछ कहा, वह सब ध्यानपूर्वक सुनिये।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (280-282)
  2. (283-284)
  3. (285-290)

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श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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