ज्ञानेश्वरी पृ. 583

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग


श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते।।9।।

फिर इस लोक में अथवा स्वर्ग लोक में जहाँ कहीं और जो देह वह जीवात्मा ग्रहण करता है, वहीं और उसी देह में वह उन्हीं मन इत्यादि इन्द्रियों का विस्तार करता है। हे किरीटी! जैसे दीपक बुझ जाने पर वह अपनी प्रभा अपने साथ ही लेता जाता है, पर फिर से प्रज्वलित करने पर वही प्रभा लेकर प्रकट होता है। ठीक वैसे ही इस जीवात्मा और देह के सम्बन्ध में भी होता है। कहने का आशय यह है कि जो लोग गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करते, उन लोगों की दृष्टि में व्यवहार का यही प्रकार दिखायी देता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि वे लोग यह मानते हैं कि आत्मा वास्तव में इस देह में आती है, वास्तव में वह विषयों का उपभोग करती है और फिर इस देह का परित्याग कर प्रस्थान कर जाती है। पर यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो स्वयं आत्मा की यह मान्यता है कि यह सब आना, जाना, करना तथा भोगना इत्यादि सिर्फ माया है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (368-372)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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