श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
फिर इस लोक में अथवा स्वर्ग लोक में जहाँ कहीं और जो देह वह जीवात्मा ग्रहण करता है, वहीं और उसी देह में वह उन्हीं मन इत्यादि इन्द्रियों का विस्तार करता है। हे किरीटी! जैसे दीपक बुझ जाने पर वह अपनी प्रभा अपने साथ ही लेता जाता है, पर फिर से प्रज्वलित करने पर वही प्रभा लेकर प्रकट होता है। ठीक वैसे ही इस जीवात्मा और देह के सम्बन्ध में भी होता है। कहने का आशय यह है कि जो लोग गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं करते, उन लोगों की दृष्टि में व्यवहार का यही प्रकार दिखायी देता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि वे लोग यह मानते हैं कि आत्मा वास्तव में इस देह में आती है, वास्तव में वह विषयों का उपभोग करती है और फिर इस देह का परित्याग कर प्रस्थान कर जाती है। पर यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो स्वयं आत्मा की यह मान्यता है कि यह सब आना, जाना, करना तथा भोगना इत्यादि सिर्फ माया है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (368-372)
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