ज्ञानेश्वरी पृ. 575

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग

इस प्रकार के लोग वैराग्य को जीतकर सांसारिक झंझटों से दूर निकल जाते हैं तथा ब्रह्मलोक का पर्वत लाँघ कर के उससे भी आगे पहुँच जाते हैं। फिर वे लोग अहंकार इत्यादि भावनाओं से शून्य होकर जिस जगह पर जाने का आज्ञा-पत्र प्राप्त करते हैं, जिस मूल वस्तु से आगे व्यक्ति की शुष्क आशा के सदृश इतनी बड़ी विश्वमालिका का विस्तार बाहर निकलता है, जिस वस्तु का ज्ञान न होने के कारण ही इस संसार की, जो यथार्थतः एकदम मिथ्या है, इतनी अपार व्याप्ति दिखायी देती है, तथा ‘मैं’ और ‘तुम’ का द्वैत अपना प्रभाव दिखलाता है, हे पार्थ! उस आद्य वस्तु को, उस अपने आत्मस्वरूप को स्वयं इस प्रकार देखना चाहिये जैसे हिम से हिम जमाते हैं। हे धनंजय! इसको पहचानने का एक और लक्षण है, वह यह कि जब एक बार इस स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं, तब फिर व्यक्ति उस स्वरूप से वापस कभी आ ही नहीं सकता। अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि स्वरूप के दर्शन होते किसे हैं? इसका एक मात्र उत्तर यही है कि जैसे महाप्रलय का जल सर्वत्र लबालब भरा रहता है, वैसे ही जिस व्यक्ति के अंग-प्रत्यंग में ज्ञान एकदम कूट-कूट कर भरा रहता है, उसी व्यक्ति को इस आत्मस्वरूप के दर्शन होते हैं।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (267-284)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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