ज्ञानेश्वरी पृ. 574

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग


ततः पदं तत्परिमार्गितव्यंयस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्ति प्रसृता पुराणी।।4।।

इतना होने पर व्यक्ति को उस आत्मस्वरूप का प्रत्यय होता है, जिसके विषय में यह निर्देश नहीं किया जा सकता कि ‘यह’ है अथवा ‘वह है’ और जो अपने बिना ही स्वयं सिद्ध होता है। किन्तु मूढ़ व्यक्ति दर्पण का आधार लेकर यह समझ बैठते हैं कि एक मुख की जगह दो मुख हैं। ठीक यही बात द्वैत की भी होती है। अत: तुम कभी भी द्वैत को स्वीकार मत करो। इस आत्मस्वरूप को ठीक तरह से देखने का ढंग यही है। कूप खनन से पूर्व भी भूमि के अन्दर जल स्रोत अपने ही स्थान पर मौजूद रहता है अथवा जिस समय जल हट जाता है अथवा सूख जाता है, उस समय जल में पड़ने वाला प्रतिबिम्ब भी पुनः लौटकर अपने मूलबिम्ब में आकर समा जाता है अथवा घड़े के टूट जाने पर जैसे घटाकाश फिर आकाश में विलीन हो जाता है अथवा जलने की क्रिया बन्द हो जाने पर जैसे अग्नि पुनः अपने मूलस्वरूप में जाकर मिल जाती है, वैसे ही हे पार्थ! यह आत्मस्वरूप भी देखना चाहिये। यह तो ठीक वैसे ही है, जैसे जिह्वा स्वयं अपना ही स्वाद चखे अथवा आँख स्वयं अपनी ही पुतली देखे अथवा जैसे तेज में तेज लीन हो जाता है, आकाश में आकाश समा जाता है अथवा जलाशय में जल जा मिलता है, वैसे ही अद्वैत की दृष्टि से अपना आत्मस्वरूप भी देखा जाता है। जैसे बिना द्रष्टा बने देखना चाहिये और जिसे न जानते हुए भी जानना चाहिये और जिस वस्तु को आद्य पुरुष के नाम से पुकारते हैं, उसके बारे में उपाधि का आश्रय लेकर वेद व्यर्थ ही भाँति-भाँति की बातें बताते हैं और उसके नामों तथा रूपों का विवेचन करने लगते हैं। जो मुमुक्षु सांसारिक और स्वर्गिक् सुखों से एकदम ऊब जाते हैं, वे इस बात की प्रतिज्ञा करके योगज्ञान की ओर प्रवृत्त होते हैं कि हम इस स्वरूप में प्रवेश करके फिर कभी लौटकर इधर नहीं आवेंगे।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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