श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-15
पुरुषोत्तम योग
हे अर्जुन! इस प्रकार मानवशाखा से लेकर स्थावरपर्यन्त शाखाओं की वृद्धि होती है। इसलिये वहीं से यह संसार-वृक्ष नीचे की ओर विस्तृत होने लगता है। नहीं तो हे पार्थ! यदि ऊपरी भाग में रहने वाले इसके आरम्भिक मूल का ध्यान रखा जाय तो ये अधोमुखी शाखाएँ मध्य में रहने वाली शाखाएँ ही गिनी जानी चाहिये। परन्तु सत्-असत् क्रियारूपी ये सत्त्व और तमोगुणी शाखाएँ इस वृक्ष के ऊर्ध्वमुख और अधोमुख फैली हुई हैं तथा वेदत्रयी की जो शाखा विकसित है, उनका हे अर्जुन! मनुष्य के बिना अस्तित्व ही नहीं हो सकता। अत: मानव-शरीर यद्यपि ऊर्ध्वमूल से निकली हुई शाखा है, तो भी यही शाखा कर्म की वृद्धि का मूल कारण होती है। अन्य वृक्षों की भी यही अवस्था होती है। जैसे-जैसे उसकी शाखाएँ विस्तृत होती जाती हैं, वैसे-वैसे उनकी जड़ भी बराबर और नीचे की ओर जाती और मजबूत होती चलती; और जैसे-जैसे जड़ मजबूत होती चलती है, वैसे-वैसे वृक्ष का विस्तार भी बढ़ता जाता है। यही बात इस शरीर के सम्बन्ध में भी है। जब तक कर्म करते हैं, तब तक शरीर की परम्परा भी विद्यमान रहती है और जब तक शरीर की सत्ता बनी रहती है, तब तक कर्म भी निरन्तर होते रहते हैं। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि यह मानव-देह ही संसार के विस्तार का फल है। जब तमोगुण के झोंके कुछ शान्त होते हैं; तब सत्त्वगुण की आँधी चलनी शुरू होती है। उस समय उसी मानव-शाखा में सुवासना के अंकुर अंकुरित होते हैं तथा उसमें सत्कर्मों की अनेक कोंपलें लगने लगती हैं। ज्ञान का यथेष्ट प्रकाश हो जाने के कारण बुद्धि की तीव्र सामर्थ्य से पल भर में अनेक नूतन शाखाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। बुद्धि की सरल और दृढ़ शाखाएँ निकलती हैं तथा उनमें स्फूर्ति के अंकुर उत्पन्न होते हैं और बुद्धि का प्रकाश विवेक-विचार का आश्रय लेता हुआ आगे बढ़ता है। फिर बुद्धि-रस से परिपूर्ण भक्तिरूपी पल्लवों में से सद्वृत्ति के सुन्दर और कोमल अंकुर उत्पन्न होते हैं। |
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