श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
जैसे आकाश का चन्द्रमा जल में प्रतिबिम्बित होने पर भी जल से सदा निर्लिप्त रहता है, वैसे ही चाहे वह शरीर में निवास करता हुआ भले ही दृष्टिगोचर हो पर फिर भी उसमें शरीर के धर्म नहीं लगते। तीनों गुण अपनी-अपनी सामर्थ्य से शरीर के स्वाँग प्रस्तुत करके उसे नचाते रहते हैं, परन्तु ज्ञानवान् व्यक्ति उनकी तरफ दृष्टि डालने के लिये कभी भूलकर भी अपना ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाला भाव पलभर के लिये भी अपने से पृथक् नहीं करते। उसके अन्तःकरण में आत्मस्वरूप का निश्चय इतना प्रबल होता है कि उन्हें कभी इस चीज का भान भी नहीं होता कि हम इस शरीर में रहकर कुछ करते भी हैं अथवा नहीं। जब सर्प एक बार अपनी केंचुली का परित्याग कर अपने बिल में प्रवेश कर जाता है, तब फिर उस केंचुली का वह भला कब ध्यान करता है? ठीक वही बात यहाँ भी लागू होती है अथवा जब कोई सुगन्धित कमल प्रस्फुटित होता है, तब उसकी पूरी सुगन्धि आकाश में मिलकर लीन हो जाती है और वह फिर कभी उस कमलकोश में वापस नहीं आती। इसी प्रकार जिस समय ब्रह्म का सारूप्य प्राप्त हो जाता है, उस समय इस बात का भान ही नहीं रह जाता कि यह देह क्या है और इसके धर्म क्या हैं। इसीलिये देह के जन्म-जरा इत्यादि जो षड्गुण हैं, वे देह में ही विद्यमान रहते हैं और ज्ञानी जीव के साथ उनका सम्बन्ध नहीं होता। जिस समय घट टूटकर छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में हो जाय, उस समय यही जान लेना चाहिये कि घटाकाश अपने-आप तत्क्षण महदाकाश में मिलकर उसी का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार जब देहाभिमान नष्ट हो जाय और अपने आत्मस्वरूप का स्मरण हो जाय, तब भला उस आत्मस्वरूप के सिवा और क्या अवशिष्ट रह सकता है? इस अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मबोध से युक्त होकर जो वह देह में विद्यमान रहता है, इसी से मैं उसे गुणातीत कहता हूँ। श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर अर्जुन को ठीक उसी प्रकार आनन्द हुआ, जिस प्रकार मेघों का गर्जन सुनकर मयूर को होता है।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (300-319)
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