श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
इस प्रकार का व्यक्ति सब गुणों से परे उस स्वतन्त्र तत्त्व को पूरी तरह से जानता है और इसका कारण यह है कि उस पर ज्ञान की छाप पूर्णतया पड़ी रहती है। हे पाण्डुसुत! जैसे कोई नदी समुद्र में समाकर उसके साथ एकरस हो जाती है वैसे ही इस प्रकार का ज्ञानी व्यक्ति मेरे साथ एकरस होकर सारूप्य प्राप्त करता है। नलिका-यन्त्र पर से उड़कर तोता जैसे वृक्ष की शाखा पर जा बैठता है, वैसे ही वह ज्ञानी जीव माया से छुटकारा पाकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के मूल अहं तत्त्व पर स्थित हो जाता है। हे सुविज्ञ! इसका कारण यह है कि अब तक अज्ञानरूपी निद्रा में जो खर्राटे ले रहा था, वही अब आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करके जाग उठता है। हे वीर शिरोमणि! जिस समय बुद्धि-भेद उत्पन्न करने वाला मोहरूपी दर्पण उसके हाथ से गिर पड़ता है, उस समय उसे प्रतिबिम्बाभास कभी हो ही नहीं सकता। जिस समय देहाभिमानरूपी वायु के वेग बन्द हो जाते हैं, उस समय तरंगों और सागर के सदृश जीव और शिव दोनों मिलकर एकाकार हो जाते हैं। इसीलिये जैसे वर्षा काल के अन्त में मेघ आकाश में लीन हो जाते हैं, वैसे ही जीवात्मा भी ब्रह्मतत्त्व में समाकर तद्रूप हो जाता है। इस प्रकार ब्रह्मभाव की उपलब्धि हो जाने पर यदि वह शरीर के समाप्त होने पर्यन्त इसी शरीर में रहता है, तो भी शरीर से उत्पन्न होने वाले गुणों की बातों के चक्कर में वह कभी नहीं पड़ता। जैसे काँच अथवा अबरक के आच्छादन से दीपक का प्रकाश कभी अवरुद्ध नहीं किया जा सकता अथवा समुद्र के जल से जैसे बड़वाग्नि कभी शान्त नहीं की जा सकती, वैसे ही गुणों के संचार के कारण जीव का बोध कभी मलिन नहीं हो सकता। |
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