ज्ञानेश्वरी पृ. 519

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग


इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।2।।

हे पाण्डुसुत! ऐसे लोग मेरी नित्यता से ही नित्य होते हैं तथा मेरी परिपूर्णता से ही परिपूर्ण होते हैं। मैं जैसे शाश्वत आनन्द से पूर्णरूप से सिद्ध हूँ, वैसे ही वे भी सिद्ध हो जाते हैं। फिर उन लोगों में और मुझ में कोई भेद अवशिष्ट नहीं रह जाता। मेरा स्वरूप जैसा और जितना होता है, उनका स्वरूप भी वैसा और उतना ही हो जाता है। जैसे घट के विदीर्ण हो जाने पर उसमें आकाश भी आकाश-तत्त्व में ही विलीन हो जाता है अथवा दीपक की अनेक ज्योतियों के शान्त हो जाने पर वे सब ज्योतियाँ उस मूल ज्योति अथवा तेज में समा जाती हैं, वैसे ही हे अर्जुन! द्वैत के सारे बवाल समाप्त हो जाने पर तथा हम और तुम इत्यादि का भेद विनष्ट हो जाने पर समस्त नामरूपात्मक पदार्थ आकर एक ही पंक्ति में बैठ जाते हैं तथा सब एक-से हो जाते हैं। इसी कारण से जब सृष्टि की प्रथम कल्पना होती है, तब भी उन्हें उत्पन्न नहीं होना पड़ता। सृष्टि के मूलारम्भ में जिनकी देह-रचना ही नहीं होती, उनका प्रलयकाल में नाश कैसे हो सकता है? अत: हे अर्जुन! जो लोग इस ज्ञान का अनुसरण करते हैं, वे जीवन और मृत्यु की व्यवस्था से परे होकर मद्रूप हो जाते हैं।”

इस प्रकार भगवान् ने ज्ञान का महत्त्व इसलिए बड़े प्रेम से अर्जुन को बतलाया जिससे उसके अन्तःकरण में इस ज्ञान को पाने की उत्कण्ठा और बढ़े। भगवान् के मुख से यह वर्णन सुनकर अर्जुन की कुछ और ही दशा हो रही थी। ऐसा प्रतीत होता था कि मानो उसके रोम-रोम में कान उत्पन्न हो गये हैं और उनकी एकाग्रता के कारण वह तन्मय हो रहा था। अब श्रकृष्ण के प्रेम ने अर्जुन को इस प्रकार व्याप्त कर लिया था कि उसके निरूपण की मर्यादा आकाश में भी नहीं समाती थी। फिर भगवान् ने अर्जुन से कहा- “हे सुविज्ञ अर्जुन! आज मेरा वक्तृत्व धन्य हुआ है क्योंकि मेरी वाणी के योग्य श्रोता एकमात्र तुम्हीं हो, जो मुझे आज मिले हो। अच्छा अब मैं तुमको यह बतलाता हूँ कि यह त्रिगुणरूपी लुब्धक मूल के एक स्वरूप यानी मुझको किस प्रकार देह के बन्धन में डालता है और माया के संग के कारण मैं ही किस प्रकार अनेक जगत् का निर्माण करता हूँ। अब तुम इस विषय का निरूपण ध्यानपूर्वक सुनो। प्रकृति को क्षेत्र कहने का कारण यह है कि वह मेरे संगरूपी बीज से भूतरूपी फसल उत्पन्न करती है।[1]

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टीका टिप्पडी और संदर्भ

  1. (52-66)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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