श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-14
गुणत्रय विभाग योग
इसलिये अब मैं फिर से उस ‘पर’ की उपपत्ति तुम्हें बतलाता हूँ जिसे श्रुतियों ने सबके परे बतलाया है। यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो यह ज्ञान स्वयं अपना ही है, परन्तु इहलोक और स्वर्गलोक के बवाल में पड़कर वह पर अर्थात् परकीय हो गया है। मैं इसे पर यानी सर्वोत्तम भी कहता हूँ और इसका कारण यही है कि और सब प्रकार के ज्ञान तो तृणवत् हैं तथा यह ज्ञान उन सबको जलाकर भस्म कर देने वाली अग्नि की तरह है। जो ज्ञान इहलोक और स्वर्गलोक को सत्य मानते हैं तथा यज्ञ-कर्म को ही अच्छे कर्म में गिनते हैं और भेदभाव के कारण जिन्हें द्वैत ही सत्य के सदृश प्रतीत होता है, वे समस्त ज्ञान इस ज्ञान के प्राप्त हो जाने पर स्वप्नवत् मिथ्या सिद्ध होते हैं। जैसे हवा के झोंके अन्ततः आकाश में विलीन हो जाते हैं अथवा जैसे सूर्योदय होने पर चन्द्र इत्यादि का तेज फीका पड़ जाता है अथवा प्रलयकाल की बाढ़ आने पर जैसे समस्त नद और नदियाँ उसी में समा जाती हैं, वैसे ही इस ज्ञान का उदय होने पर अन्य समस्त ज्ञान विलुप्त हो जाते हैं। इसलिये हे धनंजय! इस ज्ञान को अन्य सब ज्ञानों से उत्तम जानना चाहिये। हे पाण्डव, हमारी जो मूल की स्वयं सिद्ध मुक्त स्थिति है, उसी को मोक्ष कहते हैं। जिसके योग से हमें इस मोक्ष की प्राप्ति होती है, वही यह ज्ञान है और उस ज्ञान का अनुभव हो जाने पर विवेकीजन जीवन और मरणरूपी संसार को सिर ऊपर नहीं उठाने देते। जो लोग मन से ही मनोनिग्रह करके स्वाभाविक विश्रान्ति प्राप्त कर लेते हैं, वे देहधारण करने पर भी देह के वशीभूत नहीं होते। वे देह के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं और मेरी समकक्षता प्राप्त कर लेते हैं।[1] |
टीका टिप्पडी और संदर्भ
- ↑ (41-51)
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