श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
जिसकी दशा उस दीपक की भाँति होती है जो जल की बूँदें पड़ने पर चट-चट करता है, थोड़ी-सी हवा से बुझ जाता है और सहज में यदि किसी चीज से सम्पर्क हो जाय तो सारे घर को जलाकर भस्म कर देता है, जो लाख समझाने पर किसी तरह नहीं मानता, उल्टे लड़ बैठता है और अवसर मिलते ही दूसरों का घात करने से नहीं चूकता, जो अपनी थोड़ी-सी विद्या के कारण वैसे ही सब लोगों के लिये असहनीय हो जाता है जैसे थोड़ा-सा प्रकाश करने वाला दीपक भी केवल उतने ही प्रकाश से भारी ताप उत्पन्न करता है, गुणी होने पर भी मत्सर के कारण जिसकी अवस्था उस दूध की तरह होती है जो औषध रूप में पीये जाने पर भी नये ज्वर को कुपित कर देता है अथवा जो उस दूध की तरह विषाक्त होता है, जो सर्प के सम्मुख रखा जाता है, तात्पर्य यह है कि जो इस प्रकार सद्गुणी होने पर भी सबके साथ मत्सर, द्वेष करता है, ज्ञानी होने पर भी अहंकार करता है और जिसे अपनी तपस्या तथा ज्ञान का अपार गर्व होता है, जो गर्व से फूला रहता है, जैसे अन्त्यज (शूद्र) राजगद्दी पर बैठने से फूल जाता है अथवा अजगर खम्भा निगलकर फूल जाता है, जो बेलन की भाँति कभी किसी के समक्ष नहीं झुकता और पत्थर की भाँति कभी नहीं पसीजता और जो ठीक वैसे ही गुणवान् व्यक्ति के दबाव में नहीं रहता, जैसे फुफकारने वाला सर्प किसी झाड़-फूँक करने वाले के वश में नहीं रहता, बहुत क्या कहें, मैं तुम्हें निश्चित रूप से यह बतलाता हूँ कि जिस व्यक्ति में ये सब बातें होती हैं, उसमें ऐसा अज्ञान भरा रहता है जो निरन्तर बढ़ता ही जाता है और हे अर्जुन! जो इस देह-रूपी घर का ही निरन्तर पालन-पोषण करता रहता है और अपने पिछले अथवा भावी जन्मों का कभी स्मरण नहीं करता, वही अज्ञानी है। |
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