ज्ञानेश्वरी पृ. 46

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-2
सांख्य योग

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥25॥

हे किरीटी! यह तर्कवेत्ताओं की नजर में तो आता ही नहीं, पर ध्यानावस्थित योगियों को सदा इसी के दर्शनों की उत्कण्ठा लगी रहती है। यह मन को सदा दुर्लभ है। साधनों की पकड़ के बाहर है। हे अर्जुन! यह आत्मा अपरम्पार है। पुरुषोत्तम है। यह तीनों गुणों से अलग तथा रूप आदि की परिधि से बाहर है। यह अनादि, निर्विकार तथा सर्वव्यापक है। हे अर्जुन! इस आत्मा को इसी तरह जानना चाहिये तथा यह महसूस भी करना चाहिये कि यह सब जगह है और सबमें है। बस, फिर तुम्हारा सब शोक सहज में ही दूर हो जायगा।[1]

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥26॥

यदि तुम इस आत्मा को अविनाशी न मानकर इसे विनाशी ही मानते हो, तो भी हे अर्जुन! तुम्हारे लिये शोक करने का कोई हेतु ही नजर नहीं आता, क्योंकि उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का प्रवाह अखण्डरूप से सदा चलता रहता है। जिस प्रकार गंगाजल का स्त्रोत निरन्तर प्रवाहमान होता रहता है, अपने उद्गम स्थल में वह अखण्डित रहता है तथा अन्त में सागर में समाकर समरस हो जाता है और इस प्रकार वह जल यद्यपि अनवरत प्रवाहित होता रहता है, किन्तु फिर भी जैसे बीच-बीच में सर्वत्र उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही यह जान लेना चहिये कि उत्पत्ति, स्थिति और क्षय-ये तीनों स्थितियाँ सर्वदा परस्पर मिली-जुली रहती हैं। कालचक्र का कोई ऐसा भाग नहीं है जिसमें ये तीनों स्थितियाँ जीव-जगत के साथ जुड़ी हुई न हों। इसीलिये इन सबके विषय में तुम्हें शोक करने का कोई हेतु ही नहीं है; क्योंकि यह स्थिति स्वभाव से ही ऐसी ही अनादि है अथवा हे अर्जुन! यदि यह बात तुम्हें उचित न लगती हो कि ये सब लोग सदा जन्मते और मरते रहते हैं, तो भी तुम्हारे लिये इस विषय में शोक करने का कोई हेतु ही नहीं है; क्योंकि यह जन्म और मृत्यु दोनों अवश्यम्भावी हैं-इन्हें कभी कोई टाल नहीं सकता।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (148-151)
  2. (152-158)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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