श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-2
सांख्य योग
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते । हे किरीटी! यह तर्कवेत्ताओं की नजर में तो आता ही नहीं, पर ध्यानावस्थित योगियों को सदा इसी के दर्शनों की उत्कण्ठा लगी रहती है। यह मन को सदा दुर्लभ है। साधनों की पकड़ के बाहर है। हे अर्जुन! यह आत्मा अपरम्पार है। पुरुषोत्तम है। यह तीनों गुणों से अलग तथा रूप आदि की परिधि से बाहर है। यह अनादि, निर्विकार तथा सर्वव्यापक है। हे अर्जुन! इस आत्मा को इसी तरह जानना चाहिये तथा यह महसूस भी करना चाहिये कि यह सब जगह है और सबमें है। बस, फिर तुम्हारा सब शोक सहज में ही दूर हो जायगा।[1] अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् । यदि तुम इस आत्मा को अविनाशी न मानकर इसे विनाशी ही मानते हो, तो भी हे अर्जुन! तुम्हारे लिये शोक करने का कोई हेतु ही नजर नहीं आता, क्योंकि उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का प्रवाह अखण्डरूप से सदा चलता रहता है। जिस प्रकार गंगाजल का स्त्रोत निरन्तर प्रवाहमान होता रहता है, अपने उद्गम स्थल में वह अखण्डित रहता है तथा अन्त में सागर में समाकर समरस हो जाता है और इस प्रकार वह जल यद्यपि अनवरत प्रवाहित होता रहता है, किन्तु फिर भी जैसे बीच-बीच में सर्वत्र उसका अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही यह जान लेना चहिये कि उत्पत्ति, स्थिति और क्षय-ये तीनों स्थितियाँ सर्वदा परस्पर मिली-जुली रहती हैं। कालचक्र का कोई ऐसा भाग नहीं है जिसमें ये तीनों स्थितियाँ जीव-जगत के साथ जुड़ी हुई न हों। इसीलिये इन सबके विषय में तुम्हें शोक करने का कोई हेतु ही नहीं है; क्योंकि यह स्थिति स्वभाव से ही ऐसी ही अनादि है अथवा हे अर्जुन! यदि यह बात तुम्हें उचित न लगती हो कि ये सब लोग सदा जन्मते और मरते रहते हैं, तो भी तुम्हारे लिये इस विषय में शोक करने का कोई हेतु ही नहीं है; क्योंकि यह जन्म और मृत्यु दोनों अवश्यम्भावी हैं-इन्हें कभी कोई टाल नहीं सकता।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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