ज्ञानेश्वरी पृ. 443

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग

यही कारण है कि यदि आप-जैसे सुविज्ञ संतजनों की सभा में वक्तृता पर कुछ अधिक रंग चढ़ गया तो, हे प्रभु, उसके दोष के लिये कुछ विशेष स्थान नहीं रह जाता। सामान्य और विशेष श्रोताओं का संस्कृति-भेद ध्यान में न रखकर यदि मैं सरसरी तौर पर उन सबको एक ही सूत्र में पिरोकर निरूपण करूँ तो फिर आप लोग उस विवेचन को अपने श्रवणेन्द्रियों तक पहुँचने भी न देंगे। यदि शुद्ध सिद्धान्त के निरूपण में शंकाओं का निराकरण न हो और विषय ज्यों-का-त्यों जटिल ही बना रहे अथवा और अधिक जटिल हो जाय, तो श्रोताओं का विषय की ओर जाने वाला लक्ष्य पिछले पैरों वहाँ से भाग खड़ा होता है। सेवारसे भरे हुए जल की ओर हंस कभी मुड़कर भी नहीं देखता अथवा मेघों की ओट में चन्द्रमा के छिपते ही चकोर अपनी चोंच को उत्सुकता से ऊपर की ओर उठाकर कभी नहीं देखता।

इसी प्रकार यदि मैं विवादरहित और निःशंकरूप से अपना निरूपण न करूँ तो आप लोग भी श्रवण के प्रति अपना आदर भाव न दिखलावेंगे- इस ग्रन्थ को स्पर्श भी नहीं करेंगे। यही नहीं, उलटे आप लोग आक्रोश भी करेंगे। जिस विवेचन में अन्य मतों का परिहार न होगा और जिसमें आक्षेपों का मुँह बन्द न किया जायगा, यह विवेचन आप लोगों को कभी ग्राह्य न होगा और इस ग्रन्थ के प्रतिपादन का मेरा उद्देश्य केवल यही है कि आप लोग सदा मेरे साथ रहें- कृपा दृष्टि बनाये रखें। यथार्थतः आप ही लोग इस गीतार्थ के वास्तविक प्रेमी हैं। यही जानकर मैंने इस गीता को अपने हृदय से लगाया है। इसीलिये मुझे यह मालूम है कि आप लोग अपना ज्ञान-सर्वस्व देकर इसे मेरे पास से छुड़ा ले जायँगे। यह गीता कोई ग्रन्थ नहीं है, अपितु आप लोगों की अमानत है। यदि आप लोग अपने ज्ञान-सर्वस्व का लोभ करेंगे और मुझसे छिपाकर रखेंगे तथा इस गीता को धरोहर-स्वरूप ही मेरे पास पड़ी रहने देंगे, तो इसका और मेरा एक ही परिणाम होगा। कहने का भाव यह है कि मैं आप लोगों की कृपा सम्पादित करना चाहता हूँ, यह ग्रन्थ-प्रणयन तो एक मात्र बहाना है। यही कारण है कि मुझे ऐसा शुद्ध और निर्दोष निरूपण करना पड़ता है जो आप लोगों को रुचिकर लगे। इसीलिये मैं भिन्न-भिन्न मतों का ऊहापोह करने के फेर में पड़ गया था, इसी कारण से इसका अधिक विस्तार हो गया और मूल श्लोक का अर्थ कहाँ-का-कहाँ चला गया। फिर भी आप लोग इस बालक को क्षमा करें।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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