श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
अत: हे किरीटी, अभी मैंने इन्द्रियों की क्रियाओं का जो वर्णन किया है, वह वास्तव में मन के व्यवहारों का ही वर्णन है। इसलिये जिस व्यक्ति में मनसा, वाचा, कर्मणा हिंसा का पूर्ण त्याग तुम्हें दिखायी पड़े, वास्तव में उसी व्यक्ति को ज्ञान का घर ही समझना चाहिये। इतना ही नहीं, उसे मूर्तिमान् ज्ञान ही जानना चाहिये। जिस अहिंसा का माहात्म्य हम अपने कानों से श्रवण करते हैं और ग्रन्थ जिसका निरूपण करते हैं, उस अहिंसा को यदि तुम अपनी आँखों से देखना चाहते हो तो तुम्हें उस व्यक्ति को देखना चाहिये। बस इतने से ही तुम्हारी सारी समस्या हल हो जायगी।” इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पार्थ से ये सारी बातें कहीं। वास्तव में इस विषय का विवेचन मुझे बहुत ही थोड़े शब्दों में करना चाहिये था; पर विवेचन के आवेश में अधिक विस्तार हो गया। एतदर्थ आप लोग मुझे क्षमा करें। हे श्रोतावृन्द, शायद आप लोग कहेंगे- “हरा चारा देखकर जैसे पशु अपना पिछला रास्ता भूल जाता है अथवा वायु-वेग के साथ उड़ने वाले पक्षी जैसे आकाश में बराबर आगे की ओर बढ़ते चलते हैं, वैसे ही जिस समय इसके प्रेम की स्फूर्ति होती है और यह रसाल भावनाओं के प्रवाह में पड़ जाता है, उस समय इसका चित्त इसके अधीन नहीं रहता।” पर हे श्रोतावृन्द! मेरे विषय में ऐसी बात नहीं है। इस विषय के विस्तार का कुछ और ही कारण है। वैसे तो देखने में यह हिंसा शब्द केवल तीन ही अक्षरों का है और ऊपर से ऐसा लगेगा कि इसका अर्थ बहुत ही थोड़े में समझाया जा सकता है, परन्तु अहिंसा का पूर्ण, स्पष्ट तथा निःशंक अर्थ बतलाने के लिये अनेक मतों का खण्डन करने की आवश्यकता होती है और नहीं तो भिन्न-भिन्न मत सामने खड़े रहते हैं। अब यदि मैं उन समस्त मतों को दरकिनार कर सिर्फ अपना ही विवेचन कर चलूँ, तो वह विवेचन आप लोगों को ठीक नहीं जान पड़ेगा। यदि कोई जौहरियों की बस्ती में जाय तो उसे उचित है कि वह वहाँ रत्नों को परखने की गण्डकी शिला (शालिग्राम) सबके सामने रखे। वहाँ स्फटिकमणि की प्रशंसा करने से क्या लाभ हो सकता है? इसके विपरीत जहाँ आटे की भी विक्री न होती हो, वहाँ कपूर की सुगन्धि वाली चीज का क्या आदर हो सकता है? |
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