श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-13
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग
अब अव्यक्त के लक्षण सुनो। सांख्यशास्त्र और योगशास्त्र के अनुसार प्रकृति के जो दो प्रकार हैं, वे पहले (सप्तम अध्याय में) तुमको बतलाये जा चुके हैं। उनमें दूसरी परप्रकृति जो जीवदशा (ज्ञानदेवी) है, उसी का यहाँ दूसरा नाम अव्यक्त है। जैसे रात्रि का अवसान होते ही समस्त नक्षत्र गगन मण्डल में छिप जाते हैं अथवा दिन का अवसान होने पर जैसे प्राणियों का संचरण बन्द हो जाता है अथवा हे किरीटी, जैसे देह के अन्त होने पर किये हुए कर्मों में देहादि विकार गुप्त रहते हैं अथवा जैसे बीज के स्वरूप में पूरा वृक्ष छिपा रहता है अथवा जैसे सूत के स्वरूप में वस्त्र समाया रहता है, वैसे ही सम्पूर्ण स्थूल धर्म त्यागकर महाभूत और भूत-सृष्टि लय को प्राप्त होकर सूक्ष्मरूप से जिसमें निवास करती है, हे अर्जुन, उसी का नाम अव्यक्त है। अब मैं तुम्हें इन्द्रियों के विषय में बतलाता हूँ, सुनो। कान, आँख, त्वचा, नाक और जिह्वा- इन पाँचों को ज्ञानेन्द्रिय समझना चाहिये। जिस समय ये पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इकट्ठी होती हैं, उस समय इन्हीं के द्वारा बुद्धि सुख-दुःख का विचार करती है। वाणी, हाथ, पैर, गुदा-द्वार और उपस्थ- ये पाँच प्रकार और हैं। इन्हें कर्मेन्द्रिय नाम से जानना चाहिये। प्राणों की प्रिय सखी और शरीरस्थ जो क्रिया-शक्ति है, वह इन्हीं पाँच द्वारों से होकर आया-जाया करती है। देव ने कहा कि हे अर्जुन, मैंने तुमको दसों इन्द्रियों के विषय में स्पष्ट रूप से बतला दी है, अब मैं तुमको मन के विषय में बतलाता हूँ, सुनो। इन्द्रियों और बुद्धि के बीच की सन्धि पर रजोगुण के कन्धे पर चढ़कर जो खेलता रहता है तथा गगन की नीलिमा अथवा सूर्य रश्मियों के मृगजल की भाँति जो सिर्फ प्रतीत होने वाली वायु की चमक है, वही मन है। शुक्र और शोषित के एक स्थान पर मिलने से पंच महाभूतों की जो सृष्टि होती है, उसमें वायु तत्त्व के दस प्रकार होते हैं। फिर उन दस प्रकार की वायुओं का शरीर के दस भागों में अब स्थान होता है और वे अपने विशिष्ट धर्मों से युक्त होकर पृथक्-पृथक् रहती हैं। पर उनमें एक प्रकार की चंचलता रहती है, जिससे उन्हें रजोगुण का बल प्राप्त होता है। यह चांचल्य बुद्धि के बाहर, पर अहंकार की सीमा पर यानी मध्य भाग में प्रबल होता है। इसी का नामकरण मन किया गया है; परन्तु यथार्थतः वह कल्पना की ही मूर्ति है। |
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