श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
इन्हीं आकृतियों में से जब किसी एक की दृष्टि खुलती है, तब आदित्य आदि द्वादश सूर्य उत्पन्न होते हैं। पर यही दृष्टि जब बन्द हो जाती है, तब वे सब आदित्य एकत्र होकर लीन हो जाते हैं। इन आकृतियों के मुख के उष्ण श्वास से सब जगह ज्वालामय हो जाता है और उसी ज्वाला में से पावक इत्यादि अष्ट वसुओं का जन्म होता है। इनकी तिरछी भौंहों के सिरे जब क्रोध के कारण एक-दूसरे से मिलने लगते हैं, तब एकादश रुदों का उदय होता है। पर जब उन्हीं में सौम्य का प्राकट्य होता है, तब अश्विनीकुमार जैसे अनगिनत जीवनदाता प्रकट होते हैं। इन्हीं के कर्णेंन्द्रियों में से नाना प्रकार के पवन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक ही रूप के सहज लीला से देवता और सिद्ध उत्पन्न होते हैं। देखो, मेरे विश्वरूप में ऐसे अनगिनत और अनन्त रूप् हैं, जिनका वर्णन करते-करते वेद भी असमर्थ हो गये, काल का आयुष्य भी थोड़ा है और ब्रह्मा का भी जिनकी थाह नहीं लगी तथा जिनकी चर्चा भी कभी वेदत्रयी के श्रवणेन्द्रियों तक नहीं पहुँची, वे अनेक रूप तुम प्रत्यक्ष देखो और आश्चर्यमय आनन्द तथा पूर्ण सफलता का उपभोग करो।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (141-147)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |