ज्ञानेश्वरी पृ. 343

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरूतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥6॥

इन्हीं आकृतियों में से जब किसी एक की दृष्टि खुलती है, तब आदित्य आदि द्वादश सूर्य उत्पन्न होते हैं। पर यही दृष्टि जब बन्द हो जाती है, तब वे सब आदित्य एकत्र होकर लीन हो जाते हैं। इन आकृतियों के मुख के उष्ण श्वास से सब जगह ज्वालामय हो जाता है और उसी ज्वाला में से पावक इत्यादि अष्ट वसुओं का जन्म होता है। इनकी तिरछी भौंहों के सिरे जब क्रोध के कारण एक-दूसरे से मिलने लगते हैं, तब एकादश रुदों का उदय होता है। पर जब उन्हीं में सौम्य का प्राकट्य होता है, तब अश्विनीकुमार जैसे अनगिनत जीवनदाता प्रकट होते हैं। इन्हीं के कर्णेंन्द्रियों में से नाना प्रकार के पवन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक ही रूप के सहज लीला से देवता और सिद्ध उत्पन्न होते हैं। देखो, मेरे विश्वरूप में ऐसे अनगिनत और अनन्त रूप् हैं, जिनका वर्णन करते-करते वेद भी असमर्थ हो गये, काल का आयुष्य भी थोड़ा है और ब्रह्मा का भी जिनकी थाह नहीं लगी तथा जिनकी चर्चा भी कभी वेदत्रयी के श्रवणेन्द्रियों तक नहीं पहुँची, वे अनेक रूप तुम प्रत्यक्ष देखो और आश्चर्यमय आनन्द तथा पूर्ण सफलता का उपभोग करो।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (141-147)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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