ज्ञानेश्वरी पृ. 344

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्‌द्रष्टुमिच्छसि ॥7॥

हे किरीटी! जैसे कल्पतरु के नीचे तृणांकुर प्रस्फुटित होते हैं; वैसे ही इन मूर्तियों के रोमकूपों में सृष्टि के अंकुर भरे पड़े हैं। जैसे गवाक्ष में से आने वाला रश्मियों में परमाणु उड़ते हुए दृष्टिगत होते हैं, वैसे ही इन मूर्तियों के अवयवों की सन्धियों में अनेक ब्रह्माण्ड उड़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। देखो, इनमें से हर एक अवयव-प्रदेश में समस्त विश्व का विस्तार दिखायी पड़ता है। अब यदि तुम्हारी यह लालसा हो कि इस विश्व के उस पार भी जो कुछ है, उसके भी दर्शन हों, तो यह भी कोई कठिन बात नहीं है; क्योंकि तुम जो कुछ चाहो, वही मेरे इस स्वरूप में देख सकते हो। करुणामय भगवान् ने ये सब बातें तो कहीं, पर उन्होंने जो यह प्रश्न किया था कि तुम यह सब देख रहे हो अथवा नहीं? उसका अर्जुन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उस समय श्रीकृष्ण के मन में यह शंका उठ खड़ी हुई कि अर्जुन इस प्रकार स्तब्ध क्यों हो रहा है। इसी विचार से जब श्रीकृष्ण ने उस पर अपनी दृष्टि डाली, तब उन्होंने देखा कि अर्जुन पूर्व की भाँति ज्यों-का-त्यों उत्कण्ठा से भरा हुआ है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (148-153)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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