श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
हे किरीटी! जैसे कल्पतरु के नीचे तृणांकुर प्रस्फुटित होते हैं; वैसे ही इन मूर्तियों के रोमकूपों में सृष्टि के अंकुर भरे पड़े हैं। जैसे गवाक्ष में से आने वाला रश्मियों में परमाणु उड़ते हुए दृष्टिगत होते हैं, वैसे ही इन मूर्तियों के अवयवों की सन्धियों में अनेक ब्रह्माण्ड उड़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। देखो, इनमें से हर एक अवयव-प्रदेश में समस्त विश्व का विस्तार दिखायी पड़ता है। अब यदि तुम्हारी यह लालसा हो कि इस विश्व के उस पार भी जो कुछ है, उसके भी दर्शन हों, तो यह भी कोई कठिन बात नहीं है; क्योंकि तुम जो कुछ चाहो, वही मेरे इस स्वरूप में देख सकते हो। करुणामय भगवान् ने ये सब बातें तो कहीं, पर उन्होंने जो यह प्रश्न किया था कि तुम यह सब देख रहे हो अथवा नहीं? उसका अर्जुन ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। उस समय श्रीकृष्ण के मन में यह शंका उठ खड़ी हुई कि अर्जुन इस प्रकार स्तब्ध क्यों हो रहा है। इसी विचार से जब श्रीकृष्ण ने उस पर अपनी दृष्टि डाली, तब उन्होंने देखा कि अर्जुन पूर्व की भाँति ज्यों-का-त्यों उत्कण्ठा से भरा हुआ है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (148-153)
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