श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग
अम्बरीष इत्यादि भक्तों के लिये इन्होंने गर्भवास का भी दुस्सह कष्ट झेला। परन्तु उनसे भी इन्होंने अपना विश्वरूप छिपाकर ही रखा, कभी किसी को अपना वह रूप नहीं दिखलाया। इन्होंने अद्यतन यह गूढ़ रहस्य अपने अन्तरंग में ही छिपाकर रखा। फिर मैं सहसा इनसे उसके विषय में कैसे कुछ कहूँ? यदि मैं यह समझूँ कि इस सम्बन्ध में कुछ न पूछना ही उचित है तो बिना विश्वरूप के दर्शन किये मुझे चैन न मिलेगा। इतना ही नहीं अपितु इस बात में भी मुझे सन्देह ही है कि बिना वह दर्शन किये मैं जीवित भी रह सकूँगा अथवा नहीं। इसलिये अब मैं दबी जबान से ही उसकी चर्चा छेडूँ। फिर देव को जो कुछ भायेगा, वह करेंगे। इस प्रकार अपने मन में निश्चय करके अर्जुन ने सहमते हुए कहना प्रारम्भ किया। परन्तु उसका वह सहम-सहमकर बोलना भी विशेषता लिये हुए था कि उसके केवल एक-दो शब्द सुनते ही भगवान् अपने सारे विश्वरूप का उसे सद्यः दर्शन करा दें। बछड़े को देखते ही गौ खड़बड़ा जाती है और उससे मिलने के लिये व्यग्र हो उठती है। पर जिस समय बछड़ा आकर स्तन में मुख लगा दे, उस समय भला यह कब सम्भव है कि उसके स्तनों में दूध न भर आवे? पाण्डवों की सुरक्षा के लिये श्रीकृष्ण जंगलों तक में दौड़े-धूपे थे। अब अर्जुन के इस प्रकार निवेदन करने पर वे भला कैसे चुप्पी साध सकते थे? श्रीकृष्ण तो स्नेह के साक्षात् अवतार ही थे और अर्जुन उस स्नेह का मानो अच्छा खाद्य पदार्थ था। अब यदि इस प्रकार का उत्तम योग होने पर भी वे दोनों पृथक्-पृथक् रहें तो यह आश्चर्य की ही बात है। अत: अर्जुन के मुख से ये शब्द निकलते ही श्रीदेव स्वयं ही एकदम विश्वरूप हो जायँगे। यही प्रथम प्रसंग है। आप लोग इसका वर्णन ध्यानपूर्वक सुनें।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1-43)
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