ज्ञानेश्वरी पृ. 334

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-11
विश्वरूप दर्शनयोग


अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसंज्ञितम् ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥1॥

पार्थ ने श्रीकृष्ण से कहा-“हे कृपानिधि! जो बात शब्दों के द्वारा व्यक्त नहीं की जा सकती, उसे आपने मेरे लिये ऐसा स्वरूप प्रदान कर दिया कि वह वाणी के द्वारा समझ में आ सके। जब भूतमात्र ब्रह्मस्वरूप में विलीन हो जाते हैं, तब और जीवों तथा माया का कहीं नामोनिशान भी नहीं रह जाता। उस समय परब्रह्म जिस स्वरूप में उतरता है, वही उसका अन्तिम रूप है। अपना जो स्वरूप आपने अपने हृदय के अन्तरप्रान्त में कृपण के ऐश्वर्य की भाँति छिपाकर रखा था और जिसका पता स्वयं वेदों को भी नहीं चला था, वही अपने हृदय का रहस्य आज आपने मेरे सम्मुख खोलकर रख दिया है। श्रीशंकर ने जिस अध्यात्म-रहस्य पर से समस्त ऐश्वर्य निछावर करके फेंक दिया,

हे स्वामी! आज वही रहस्य आपने मुझे एकदम से बतला दिया। पर यदि मैंने इस बात की चर्चा की, तो मैंने आपका व्यापक स्वरूप पाया कैसे? पर महामोह के अथाह सागर में मुझे आपादमस्तक डूबा हुआ देखकर, हे श्रीहरि! आपके स्वयं ही कूदकर मुझे बाहर निकाला है। अब मेरे लिये इस जगत् में आपके सिवा अन्य कोई बात ही नहीं रह गयी है। पर मेरा भाग्य ही कुछ ऐसा खोटा है कि अभी तक मेरे मुख से यही बात निकल रही है कि-‘मैं आपसे कोई पृथक् व्यक्ति हूँ।’ अभी तक मेरे साथ ऐसा देहाभिमान लगा हुआ था कि इस संसार में मैं अर्जुन नाम का एक पुरुष हूँ और इन कौरवों को मैं अभी तक अपना ‘स्वजन’ कहता था। सिर्फ यही नहीं, मैं इस प्रकार का दुःस्वप्न भी देख रहा था। मैं इन्हें मारूँगा और इस प्रकार मैं पाप में लिप्त होऊँगा। इतने में ही आपने मुझे जगा दिया। हे देव! हे लक्ष्मीपति! अभी तक मैं सच्ची बस्ती का परित्याग कर झूठे गन्धर्व नगर में घूम रहा था और जल के धोखे में मृगजल का पान कर रहा था। कपड़े का सर्प वास्तव में मिथ्या तथा नकली था, पर मेरे अन्दर यह मिथ्या भावना भर गयी थी कि सचमुच सर्प ने ही मुझे डस लिया है और इसीलिये सचमुच विष की लहरें चढ़ रहीं थीं और यह जीव व्यर्थ ही जीवन-लीला समाप्त कर रहा था। परन्तु उसे बचाने का श्रेय आपको ही है।

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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