ज्ञानेश्वरी पृ. 329

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग

यह सुनकर अर्जुन ने कहा-“हे महाराज, अपनी बात तो आप ही जाने, पर मुझे तो सारा विश्व आपसे ही ओत-प्रोत दिखायी देता है।” परन्तु संजय ने जो यह कहा था-“हे महाराज, अर्जुन इस प्रकार आत्मरूप का अनुभव करने लगा।” सो संजय का यह वचन धृतराष्ट्र एकदम मौन होकर सुनता रहा। उस समय संजय के अन्तःकरण में बहुत दुःख हुआ और उसने मन-ही-मन कहा-“इतना बढ़िया सौभाग्य का सुन्दर फल सामने उपस्थित है, पर फिर भी वह इस धृतराष्ट्र से बहुत दूर है। यह भी एक आश्चर्य की ही बात है। मैं समझता था कि इसकी बुद्धि कुछ ठीक होगी; पर यह तो भीतर से अन्धा है।” अस्तु!

अब वह अर्जुन अपने आत्मकल्याण की वृद्धि करता जा रहा था, क्योंकि अब उसके अन्तःकरण में एक और ही बात की उत्कण्ठा जाग्रत् हो उठी थी। उसने कहा-“हे देव, मेरे हृदय में जो आत्मस्वरूप का अनुभव प्रतिबिम्बित हुआ है, उसके बारे में अब मेरा चित्त इस उत्कण्ठा से व्याकुल हो रहा है कि वही अनुभव में इस बाह्य जगत् में स्वयं अपनी आँखों से करूँ।” अर्जुन अत्यन्त सौभाग्यशाली था, इसीलिये उसके चित्त में अपने दोनों आँखों से सम्पूर्ण विश्व का आकलन करने की महान् अभिलाषा उत्पन्न हुई थी। हे श्रोतावृन्द, वह अर्जुन स्वयं कल्पवृक्ष की शाखा ही था और इसीलिये यह सम्भव नहीं था कि वह वन्ध्या अर्थात् फलहीन अथवा विफल होता। यही कारण है कि उसके मुख से जो-जो बातें निकलती थीं, वह सब श्रीकृष्ण पूरी करते चलते थे। जिन परमात्मा ने अपने भक्त प्रह्लाद के वचनों की रक्षा के लिये स्वयं विष तक का रूप धारण किया था, वही परमात्मा इस अर्जुन को सद्गुरु के रूप में मिले हुए थे। अब अगले अध्याय में श्रीनिवृत्तिनाथ का शिष्य ज्ञानदेव श्रोताओं को यह बतलावेगा कि उस समय उस अर्जुन ने किन शब्दों में श्रीकृष्ण से यह विनम्र प्रार्थना की थी कि मुझे विश्वरूप दिखलाइये।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (308-335)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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