श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-10
विभूति योग
इसीलिये हे सुभद्रापति! मेरे स्वरूप को जानने का इस प्रकार का प्रयत्न रहने दो। मेरे तो एक ही अंश ने पूरे जगत् को व्याप्त कर रखा है, अत: तुम सारा भेदभाव त्यागकर समबुद्धि से मेरा भजन करो।” ज्ञानिजनरूपी वन में पुष्पित होने वाले वसन्त और विरक्तजनों के सम्पूर्ण ध्येय उन ऐश्वर्य सम्पन्न श्रीकृष्ण ने अर्जुन से इस प्रकार कहा। इस पर अर्जुन ने कहा-“हे स्वामी! आपने तो सिर्फ यही एक रहस्य मुझे बतलाया कि मैं सारा भेदभाव एकदम त्याग दूँ। अब यदि मैं यह कहूँ कि आपका यह कहना भी वैसा ही अनुचित है, जैसा सूर्य का संसार से यह कहना कि ‘यह अन्धकार दूर कर दो’ तो मेरा ऐसा कहना छोटे मुँह बड़ी बात होगी। आपके तो नाम की ही इतनी बड़ी महिमा है कि यदि किसी के मुख से किसी भी समय आपका नाम निकल जाय अथवा किसी के श्रवणेन्द्रिों में ही आपका नाम पड़ जाय तो भेदभाव उसके हृदय से तत्क्षण ही निकलकर भाग जाते हैं। आप तो साक्षात् परब्रह्म ही हैं और वही परब्रह्म इस समय सौभाग्य से मुझे मिल गये हैं। फिर यहाँ कौन-सा भेदभाव रह सकता है और वह किसके लिये बाधक हो सकता है? क्या चन्द्रबिम्ब के गर्भ में प्रवेश करने पर भी कहीं उष्णता की अनुभूति हो सकती है? परन्तु हे शांर्गधर, आप अपने बड़प्पन के कारण ही इस समय ऐसी बात कह गये हैं।” यह सुनकर श्रीकृष्ण को अत्यन्त सन्तोष हुआ और उन्होंने अर्जुन को हृदय से लगा करके कहा-“हे सुभट (अर्जुन), तुम रोष मत करो। मैंने भेद का अंगीकार करके जिन अलग-अलग विभूतियों का विवचेन किया है, उनके विषय में सिर्फ इसी बात की परख करने के लिये मैंने कुछ ऊपरी बातें कही हैं कि उन बातों की अभिन्नता तुम्हारे हृदय में अंकित हुई है अथवा नहीं। परन्तु अब मुझे इसका भान हो गया है कि तुम्हें मेरी विभूतियों का भली-भाँति बोध हो गया है।” |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |