ज्ञानेश्वरी पृ. 320

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


रुद्राणां शंकरश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरू: शिखरिणामहम् ॥23॥

चतुर्दश रुद्रों मैं मदनारि शंकर हूँ, इसमें लेशमात्र भी संशय नहीं है। श्रीअनन्त ने कहा कि मैं यक्षों और राक्षसों में शम्भु-सखा कुबेर हूँ, अष्ट वसुओं में अग्नि हूँ और समस्त पर्वतों में अत्यन्त श्रेष्ठ मेरु पर्वत हूँ।[1]


पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्द: सरसामस्मि सागर: ॥24॥
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालय ॥25॥

जो इन्द्र का सहायक, सर्वज्ञता का आदि पीठ और पुरोहित में सर्वश्रेष्ठ है, वह बृहस्पति भी मैं ही हूँ। इस त्रिलोकी के सेनापतियों में कृत्तिकान्त शंकर से उत्पन्न महाज्ञाता कार्तिक स्वामी भी मैं ही हूँ। समस्त सरोवरों में अपार जलराशि वाला जो समुद्र है, वह मैं हूँ और महर्षियों में महान् तपस्वी भृगु भी मैं ही हूँ। वैकुण्ठ-विलासी श्रीकृष्ण ने कहा कि सम्पूर्ण वाचाओं में जिस सत्य का व्यवहार है, वही एक सत्य अक्षर मैं ही हूँ। कर्मकाण्ड का परित्याग करके ओंकार इत्यादि के द्वारा जिस जप-यज्ञ की सांगता की जाती है वह जप-यज्ञ समस्त यज्ञों में मेरी प्रधान विभूति है। नाम के जप का अत्यन्त श्रेष्ठ है। इसके लिये स्नान इत्यादि नित्य कर्मों की भी आवश्यकता नहीं होती। नाम के घोष से धर्म-अधर्म दोनों ही पवित्र होते हैं। वेदार्थ से भी नाम ही परब्रह्म ठहरता है। लक्ष्मी पति ने कहा कि पर्वतों में पुण्यपुंज जो पर्वतराज हिमालय है, वह भी मैं ही हूँ।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (225-227)
  2. (228-234)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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