ज्ञानेश्वरी पृ. 321

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद: ।
गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि: ॥26॥
उच्चै: श्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्भवम् ।
ऐरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥27॥

पारिजात तो साक्षात् कल्पद्रुम ही है और चन्दन का गुण भी बहुत विख्यात है, तो भी वृक्षों की कोटि में मेरी प्रमुख विभूति अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष ही है। हे पाण्डव, देवर्षियों में नारद और गन्धर्वों में चित्ररथ भी मुझे ही जानना चाहिये। हे ज्ञानवन्त, समस्त सिद्धों में कपिलाचार्य मैं ही हूँ और मैं ही समस्त अश्व जाति में प्रसिद्ध उच्चैःश्रवा भी हूँ। हे अर्जुन, जो हाथी राजाओं के भूषण की तहर जान पड़ते हैं, उनमें ऐरावत भी मैं ही हूँ। समुद्र का मन्थन करने पर देवताओं को जो अमृत मिला था, वह भी मैं ही हूँ। जिसकी आज्ञा सारे लोक की प्रजा शिरोधार्य करती है, सारी प्रजा में उसी राजा को मेरी प्रमुख विभूति जानना चाहिये।[1]


आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्प: सर्पाणामस्मि वासुकि: ॥28॥
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितृणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम् ॥29॥

हे धनुर्धर! समस्त शस्त्रों में मैं वज्र हूँ, जो शतक्रतु इन्द्र के हाथ में रहता है। श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं ही गौओं में कामधेनु हूँ और जन्म देने वालों में जो मदन है, वह भी मैं ही हूँ। हे कुन्तीसुत, सर्पकुल का नायक वासुकि और समस्त नागों में अनन्त नाम का नाग मेरी प्रधान विभूति है। समस्त जलचरों में जो पश्चिम दिशा का स्वामी वरुण है, वह भी मैं ही हूँ। मैं ही समस्त पितृगणों में अर्यमा नामक पितृ देवता हूँ। आत्मा में रमण करने वाले रमापति ने कहा कि पूरे संसार के शुभ और अशुभ कर्मों का लेखा-जोखा रखने वाला, सबके अन्तःकरण की परख करने वाला और उन्हें कर्मानुसार फल-भोग कराने वाला जो नियन्ता है और सबके कर्मों को सदा देखने वाला जो यम है, वह भी मैं ही हूँ।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (235-239)
  2. (240-246)

संबंधित लेख

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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