ज्ञानेश्वरी पृ. 312

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

Prev.png

अध्याय-10
विभूति योग


सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा: ॥14॥

पर अब आपकी वाक्यरूपी सूर्य-किरणों का मेरे हृदय पर प्रसार हो गया है और इसीलिये अब मैं उन ऋषियों के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग को पहचानने लगा हूँ। हे देव, उनके वचन थे तो ज्ञान के बीज ही, पर वे हृदयरूपी भूमि में यों ही पड़े हुए थे। पर अब उस पर आपकी कृपा-वृष्टि हो गयी है जिससे वे बीज अंकुरित हुए हैं और उनमें एकवाक्यतारूपी फल लगा है। हे अनन्त, नारदादिक सन्तों के वचन युक्तिरूपी नदियों के सदृश थे, परन्तु उन नदियों के द्वारा आज मैं एकवाक्यता के सुख का अगाध सागर ही बन गया हूँ। हे प्रभु! मैंने वर्तमान जन्म में जो-जो उत्तम पुण्य अर्जित किये हैं, उन पुण्यों में, हे सद्गुरु, वह वस्तु देने की एकदम सामर्थ्य नहीं है जो वस्तु आप मुझे प्रदान कर सकते हैं और नहीं तो, बड़ों-बूढ़ों के मुख से आपका गुणानुवाद मैंने न जाने कितनी बार सुना था। परन्तु जिस समय तक एक आपकी कृपा नहीं हुई थी, उस समय तक कुछ भी मेरी समझ में नहीं आता था। जब भाग्य अनुकूल होता है, तब जो उद्योग करो, वह अपने-आप ही सफल हो जाता है। इसी प्रकार जब गुरु की कृपा होती है, तभी सुना और पढ़ा हुआ ज्ञान भी फलदायक होता है। माली आजन्म परिश्रम करके पौधे सींचता रहता है, परन्तु उन पौधों से फल तभी मिलते हैं, जब वसन्त-ऋतु आती है। हे देव, जब विषम ज्वर उतर जाता है, तभी मीठी वस्तु की मिठास का अनुभव होता है। जब रोगों का नाश होता है, तभी रसायन का माधुर्य मन को रुचता है। इन्द्रियों, वाचा और प्राणवायु की सार्थकता तभी है, जब उनमें चैतन्य का संचार होता है। इसी प्रकार साहित्य का लोग जो यथेच्छ मन्थन करते हैं अथवा योग इत्यादि का जो अभ्यास करते हैं, उन सबका वास्तविक फल तभी प्राप्त होता है, जब श्रीगुरुराज कृपा करते हैं।”

इस प्रकार आत्मानुभव के रंग में रँगा हुआ अर्जुन निःशंक होकर पुत्तलिका की भाँति नृत्य करने लगा और कहने लगा-“हे देव, आपकी बातें भली-भाँति मेरे चित्त में समा गयी हैं। हे कैवल्य पति, मुझे अब अच्छी तरह यह भान हो गया है कि देवताओं अथवा दानवों की बुद्धि भी आपके सच्चे स्वरूप का आकलन नहीं कर सकती। इस बात का मुझे पूर्णरूप से विश्वास हो गया है कि बिना आपके बोध-वचन प्राप्त किये जो एकमात्र अपनी बुद्धि के बल पर ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, उसे सिर्फ निराशा ही हाथ लगेगी।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (163-175‌)

संबंधित लेख

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः