ज्ञानेश्वरी पृ. 308

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥9॥

जिन भक्तों का चित्त मद्रूप हो जाता है, मेरे स्वरूप से जिनके अन्तःकरण का सम्यक्-रूप समाधान हो जाता है अर्थात् जिनके प्राण मेरे स्वरूपानु भव से तृप्त हो गये हैं और जो आत्मबोध के प्रेम में पड़कर जीवन और मृत्यु सब कुछ भुला बैठते हैं, वे लोग उसी आत्मबोध के बढ़ते हुए प्रभाव से अद्वैतानन्द के सुख में नृत्य करने लगते हैं और परस्पर केवल आत्मबोध का ही लेन-देन करते हैं। जैसे एक-दूसरे के निकट स्थित सरोवर बाढ़ आने पर परस्पर मिल जाते हैं और उनकी तरंगों का निवास आपस की तरंगों में ही होता है, वैसे ही अभेद भक्ति वाले भक्त जिस समय एक-दूसरे से मिलते हैं और उनमें ऐक्य भाव की स्थापना हो जाती है, उस समय मानो आनन्द के आगार आपस में पिरोये जाते हैं और आत्मबोध को आत्मबोध के ही द्वारा आत्मबोध का ही अलंकार प्राप्त होता है और इस प्रकार उस आत्मबोध की शोभा की वृद्धि हो जाती है।

जैसे एक सूर्य दूसरे सूर्य की आरती करे अथवा एक चन्द्रमा दूसरे चन्द्रमा का आलिंगन करे, अथवा दो समान जल-प्रवाह परस्पर मिल जायँ, ठीक वैसे ही जिस समय भक्तियोग से युक्त भक्त एक-दूसरे के साथ मिलते हैं, उस समय उनकी समरसता का पावन प्रयाग तीर्थ बन जाता है और तब उसी तीर्थ के जल में सात्त्विक भावों की बाढ़-सी आ जाती है और वे ऐक्य के चतुष्पथ के गणेश बन जाते हैं। इसके बाद उस आत्मानन्द के अत्यन्त सुख से भरे हुए वे भक्तियोगी देहभान वाली सीमा पार करके और मेरे लाभ से पूर्ण समाधान प्राप्त करके उच्च स्वर से घोष करने लगते हैं। गुरु एकान्त में अपने शिष्य को जिन मन्त्राक्षरों का उपदेश करता है, उन्हीं मन्त्राक्षरों का उद्‌घोष वे लोग सबके समक्ष मेघों की भाँति गरज-गरज कर करते हैं। कमलकलिका का जब अपनी विकास की पूर्णावस्था को प्राप्त होती है, तब वह अपने अन्दर स्थित मधुरस किसी प्रकार दबाकर नहीं रख सकती और वह राजा से लेकर रंकपर्यन्त सबका समानरूप से आतिथ्य करती है। इसी प्रकार वे भक्तियोगी अतिशय आनन्द में भरकर पूरे संसार में मेरा घोष करते हैं और उस कीर्तन के घोष से उत्पन्न होने वाले सन्तोष से इतने अधिक भर जाते हैं कि अन्त में वे कीर्तन भूलकर स्तब्ध हो जाते हैं और उसी विस्मृति में तन-मन से रमण करते रहते हैं। इस प्रेमातिरेक में उन्हें दिन और रात का भी ध्यान नहीं रह जाता। इस प्रकार जो लोग मेरे स्वरूप-लाभ का दोषरहित पूर्ण सुख पा जाते हैं[1],

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (119-129)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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