ज्ञानेश्वरी पृ. 309

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-10
विभूति योग


तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥10॥

उन्हें हे अर्जुन! मैं जो कुछ देना चाहता हूँ, उसका उत्तमोत्तम अंश पहले से ही उनके पास होता है। क्योंकि हे सुभट (अर्जुन)! जिस मार्ग से वे निकलते हैं, यदि उस मार्ग की सम्पूर्ण व्यवस्था पर दृष्टिपात किया जाय तो स्वर्ग और मोक्ष के मार्ग भी उसके सामने टेढे़-मेढ़े और छोड़ देने के योग्य जान पड़ते हैं। इसलिये वे लोग अपने चित्त में जो प्रेम सँजोये रहते हैं, उनक वही प्रेम मैं उन्हें देना चाहता हूँ। पर वह प्रेम भी जो मैं उन्हें प्रदान करना चाहता हूँ, उसे वे पहले से ही सिद्ध तथा प्राप्त कर चुके होते परन्तु वह प्रेम मैंने दिया है, ऐसा वह भक्त मानते हैं। अब उनके लिये सिर्फ इतना ही शेष रह जाता है कि उनका वह प्रेम-सुख निरन्तर बढ़ता रहे और एतदर्थ मुझे सिर्फ इतनी ही व्यवस्था करनी पड़ती है कि उनके उस प्रेम पर काल की दृष्टि न पड़े और वह विनष्ट न होने पावे।

हे किरीटी माता अपने लाड़ले बच्चे पर अपनी स्नेहपूर्ण दृष्टि का आवरण डालकर उसे सुरक्षित रखती है और जिस समय वह जहाँ-तहाँ खेलता रहता है, उस समय उसके पीछे-पीछे दौड़ती रहती है और तब वह बच्चा जिन-जिन खिलौनों की माँग करता है, उन-उन खिलौनों को बनाकर वह अपने लाड़ले बच्चे के समक्ष रखती है। ठीक इसी प्रकार अपने भक्तों के लिये मैं भी वही काम करता हूँ जिनसे उपासना के मार्ग का पोषण होता है। इस मार्ग के पोषण से वे लोग सुखपूर्वक मेरे पास आ पहुँचें, बस इसी की व्यवस्था करना मेरे लिये परमावश्यक हो जाता है। भक्तों का मेरे प्रति अगाध प्रेम होता है और मुझे भी उनकी अनन्य शरणागति का पूरा खयाल रखना पड़ता है, क्योंकि प्रेमी भक्तों पर यदि संकट आये तो मानो वह संकट स्वयं मेरे घर पर ही आता है। फिर स्वर्ग और मोक्ष-ये दोनों ही मार्ग मैं उनके अधीन कर देता हूँ। इतना ही नही बल्कि लक्ष्मीसहित मैंने स्वयं अपना सम्पूर्ण शरीर भी शेषनाग को बेच डाला। परन्तु जिसमें ‘मैं’ पने का बिल्कुल लेश नहीं है ऐसा नित्य ताजा बना रहने वाला जो आत्मसुख है, उसे मैं एकमात्र अपने प्रेमी भक्तों के लिये अलग रख देता हूँ, हे किरीटी, इस सुख की पराकाष्ठा तक मैं अपने प्रेमी भक्तों को अनुरागपूर्वक अपने पास रखता हूँ। पर यह बात इस प्रकार की नहीं है, जो शब्दों के द्वारा कही जा सके।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (130-140)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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