ज्ञानेश्वरी पृ. 280

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-9
राज विद्याराज गुह्ययोग


अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्यवन्ति ते ॥24॥

हे पाण्डुसुत! देखो, इन यज्ञों के सम्पूर्ण उपचारों का भोक्ता मेरे सिवा और कौन हो सकता है? मैं ही समस्त यज्ञों का आदिकारण हूँ और मैं ही यज्ञों की अन्तिम मर्यादा हूँ, परन्तु इन यज्ञकर्ताओं को इस बात का ज्ञान ही नहीं है और इसीलिये वे मुझे भूलकर अन्यान्य देवताओं के भजन में लगे हुए हैं। जैसे देवों और पितरों के निमित्त दिया गया का जल गंगा में ही अर्पित किया जाता है, वैसे ही यज्ञादि विधि-विधानों के द्वारा वे लोग मेरी ही वस्तु मुझको ही अर्पित करते हैं; पर केवल अर्पण-विधि अन्य देवताओं के उद्देश्य से करते हैं। इसीलिये हे पार्थ! वे इन विधि-विधानों के द्वारा मुझ तक आकर नहीं पहुँचते, बल्कि यज्ञकर्ता लोग जिन देवताओं के उद्देश्य से इन सब कर्मों का आचरण करते हैं, उन्हीं अपने उपास्य देवताओं को वे लोग प्राप्त होते हैं।[1]


यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रता: ।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ॥25॥

जो लोग अपने मन, वाणी और इन्द्रियों के द्वारा देवताओं का भजन करते हैं, वे देहावसान होते ही उन देवताओं के रूप को प्राप्त करते हैं। अथवा जिनके चित्त पित्-व्रत के आचरण में रँगे हुए हैं, वे शरीर छोड़ने के बाद पितरों के स्वरूप को प्राप्त करते हैं। जिन लोगों को भूत-पिशाच और शूद्र देवतादि ही सर्वश्रेष्ठ जान पड़ते हैं, तथा मारण इत्यादि मन्त्रों के लिये जो उनकी उपासना करते हैं, उनके शरीर का अन्त होते ही वे लोग शीघ्र ही भूतयोनि को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सब लोग अपने-अपने संकल्पानुसार ही अपने-अपने कर्मों का फल प्राप्त करते हैं। पर जिनके नेत्रों ने मेरे ही दर्शन किये हैं, जिनके श्रवणेन्द्रियों ने मेरे ही विषय में श्रवण किया है, जिनके मन ने सिर्फ मेरा ही चिन्तन किया है, जिनकी वाणी ने मेरा ही यशोगान किया है। जो अपने सर्वांगों से सर्वत्र मुझे ही नमन करते हैं, जो दान-पुण्य इत्यादि क्रिया मेरी प्रसन्नता के लिये ही करते हैं, जो मेरा ही अध्ययन करते हैं, जो बाह्याभ्यन्तर मद्रूप होकर संतृप्त होते हैं, जिनका जीवन मुझे ही समर्पित है, जो सिर्फ हरिभक्तों के लक्षण धारण करने के लिये ही अहंभाव को अंगीकार करते हैं, जिन्हें एकमात्र मेरा ही लोभ है, जो मुझे पाने की अभिलाषा से ही सकाम रहते हैं, जो मेरे ही प्रेम में व्याकुल होते हैं, मेरे सर्वव्यापी स्वरूप से भरे होने के कारण जिन्हें लौकिक भाव भासमान भी नहीं होते, जिनके शास्त्र और मन्त्र-तन्त्र सब मेरे प्रीत्यर्थ होते हैं, तात्पर्य यह कि जो अपने समस्त व्यवहारों और आचारों में मेरा ही भजन करते हैं, वे शरीर छोड़ने के पहले ही मेरा सत्य-स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं, फिर भला मृत्यु के बाद वे और कहाँ जा सकते हैं? इसीलिये जो अपने सम्पूर्ण क्रिया-कलाप स्वयं ही मेरे स्वरूप को समर्पित करते हैं, वे मेरे उपासक मेरा ही स्वरूप प्राप्त करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (351-354)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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