श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग
मेरे ऊपर उन लोगों की उस भक्ति का कर्ज रहता है और वही कर्ज चुकाने के लिये भक्तों के अवसान काल में उनकी शुश्रूषा के लिये मुझे बहुत ही तत्परता के साथ उद्यत होना पड़ता है। मुझे सदा यह डर बना रहता है कि मेरे उन सुकुमार भक्तों को देह की कृशता के कारण कहीं किसी प्रकार का क्लेश न हो; यही कारण है कि मैं उन लोगों को आत्मज्ञान रूपी पिंजरे में सुरक्षित रूप से रखता हूँ तथा उन पर आत्म-स्मरण की शान्त और शीतल छाया रखता हूँ। इस प्रकार मैं उनकी बुद्धि सदा अचल और शान्त कर देता हूँ, इसीलिये मेरे भक्तों को शरीर का परित्याग करते समय लेशमात्र भी किसी प्रकार की पीड़ा नहीं होती। मैं सहज में ही अपने उन परम प्रिय भक्तों को अपने स्वरूप की ओर ले जाता हूँ। उनके ऊपर लगे हुए शरीर रूपी कवच को मैं उनसे अलग कर देता हूँ, उनके ऊपर लगे मिथ्या अहंकार की धूल को साफ कर देता हूँ और उनकी शुद्ध वासना को निर्लिप्त रखकर उन्हें अपने स्वरूप के संग मिला लेता हूँ। इसके अलावा भक्तों को भी एकत्व के कारण अपने देह के लिये विशेष ममता नहीं होती और इसलिये अपने देह का परित्याग करते समय उन्हें भी उसके वियोग का दुःख नहीं होता। इसी प्रकार उन भक्तों के अन्तःकरण में यह भावना भी नहीं उमड़ती कि शरीर के नष्ट होते ही मैं उनके सन्निकट पहुँच जाऊँ और उन्हें आत्मस्वरूप में ले आऊँ; क्योंकि शरीरधारी रहने की स्थिति में ही वे मेरे स्वरूप में घुले-मिले रहते हैं। यदि यथार्थ दृष्टि से देखा जाय तो इस संसार में उनका जो अस्तित्व होता है, वह देहरूपी जल में एकमात्र छाया की ही भाँति होता है। जल में चन्द्रमा की प्रतिच्छाया पड़ती है; पर जिस समय वह जल सूख जाता है, उस समय वह प्रतिच्छाया वास्तव में स्वतः चन्द्रमा में ही समा जाती है। ठीक इसी प्रकार जिस समय इस देहरूपी जल का अन्त हो जाता है, उस समय वे लोग वास्तव में आत्मस्वरूप में ही रहते हैं। इस संसार में उनकी जो सत्ता (अस्तित्व) होती है, वह यथार्थ नहीं होती, अपितु सिर्फ प्रतिच्छाया की ही भाँति होती है और उनका यथार्थस्वरूप ब्रह्मस्वरूप ही होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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