ज्ञानेश्वरी पृ. 228

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-8
अक्षरब्रह्म योग

इस प्रकार जो मद्रूप हुए रहते हैं, उन्हें मैं नित्य बिना प्रयास के ही प्राप्त होता हूँ और इसीलिये शरीर के अन्त होने के समय निःसन्देह वे मेरा स्वरूप प्राप्त करते हैं। फिर जो देह दुःखरूपी वृक्षों का बागीचा है, जो तीनों तापों (आध्यात्मिक आधिदैविक, आधिभौतिक) की केवल अँगीठी ही है, जो मृत्युरूपी कौवे के सामने रखी हुई केवल बलि है‚ जो दीनता का उत्पत्ति स्थान है‚ जो मृत्यु के भय को बढ़ाने वाला और समस्त दुखों का भण्डार है, जो दुर्गति की जड़ है और भ्रान्ति की साक्षात् प्रतिमा है, जो संसार का मूलाधार है, जो विकारों का उद्यान है तथा सब प्रकार के रोगों की परोसी हुई थाली है, जो काल की जूठी खिचड़ी, आशा का आश्रय स्थान है, जो स्वभावतः जन्म-मरण के आवागमन का रास्ता है, जो भ्रम से पूर्ण, विकल्प से निर्मित और दुःखरूपी बिच्छुओं से परिपूर्ण है, जो बाघ की गुफा, वारांगनाओं के साथ रहने वाला और विषय भोग का सर्वमान्य साधन है, जो यक्षिणी के प्रेम की तरह है अथवा शीतल किये हुए विष के घूँट के सदृश अथवा ठग के दिखावटी विश्वसनीय सद्‌व्यवहार के तुल्य है, जो कृष्ठ रोगियों का आलिंगन, कालसर्प की मृदुता और बहेलिये का स्वाभाविक गान है, जो वैरियों के द्वारा किया हुआ आतिथ्य है, दुर्जनों के द्वारा प्रदर्शित मान-सम्मान है, किंबहुना, जो समस्त अनर्थों का सागर है, जो निद्रा में देखे हुए स्वप्न के समान है अथवा मृगजल से सिंचित वन या धूम्रकण से निर्मित आकाश है, वह शरीर वे लोग फिर कभी प्राप्त नहीं करते, जो एक बार मेरे अपार ब्रह्मस्वरूप में पहुँचकर तद्रूप हो जाते हैं।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (124-151)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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