श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
श्रीभगवान् इस प्रकार शब्दरूपी गंगाजली में से वाणीरूपी रस उलट रहे थे, पर अर्जुन की अवधानरूपी अंजलि आगे बढ़कर वह रस ग्रहण नहीं कर रही थी, क्योंकि उस समय वह पलभर के लिये पूर्व श्लोकों में वर्णित बातों पर विचार कर रहा था। प्रचुर अर्थरूपी रस से लबालब भरे हुए चतुर्दिक् सद्भावरूप सुगन्ध बिखेरने वाले और परब्रह्म का प्रतिपादन करने वाले वे वचनरूपी फल जब कृपारूपी वायु के झोकों से श्रीकृष्णरूपी वृक्ष पर से अर्जुन के श्रवणेन्द्रियरूपी थैली में पड़े थे, तब उसे ऐसा मालूम पड़ा था कि मानो ये वचनरूपी फल स्वयं महासिद्धान्त से ही निर्मित हैं अथवा ब्रह्मरस के सागर में डुबाये हुए हैं और तब परमानन्दरूपी रस में अच्छी तरह धोकर निकाले हुए हैं। उनमें इस प्रकार की मोहकता थी कि अर्जुन के अपलक नेत्र गटागट विस्मयरूपी अमृत के घूँट पीने लगा। उस दिव्य सुख का स्वाद ले करके अर्जुन स्वर्ग को भी नगण्य समझने लगा तथा उसके हृदय में आनन्द की गुदगुदी होने लगी। जिस समय इस प्रकार उन वचनरूपी फलों के सिर्फ बाह्य दर्शन के सौन्दर्य से ही अर्जुन का सुख बढ़ने लगा, उस समय उसे उन वचनरूपी फलों का रसास्वादन करने की तीव्र लालसा उत्पन्न होने लगी। उन वचनरूपी फलों को वह तर्क-बुद्धिरूपी हाथों से झट से उठाकर अनुभवरूपी मुख में डालकर चखने लगा। किन्तु वे वचन फल-विचार की जिह्वा को नहीं रुचते थे और हेतु के दाँतों से नहीं टूटते थे। इसलिये उस सुभद्रापति अर्जुन ने उन्हें चबाने का विचार ही त्याग दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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