श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे पार्थ! इसके बाद इस जन्म-मरण की कहानी स्वतः बन्द हो जाती है। जिनकी आस्था में ऊपर बतलायी गयी चेष्टाओं का फल लगता है, उन्हें वह चेष्टा एक-न-एक दिन अवश्य ही सिद्धि प्रदान करती है और तब उनके हाथ वह परब्रह्मरूपी परिपक्व समग्र फल लगता है, जिसमें पूर्णता का रस लबालब भरा हुआ होता है। उस समय समस्त जगत् कृतकृत्यता की धन्यता से भर जाता है, आत्मज्ञानरूपी गौरव को पूर्णता मिल जाती है, कर्मों की आवश्यकता समाप्त हो जाती है और मन सुखी तथा शान्त हो जाता है। हे धनंजय! जो मुझे ही अपने व्यापार की पूँजी बनाता है, उसे इसी प्रकार के आत्मबोध का लाभ होता है। उसे साम्यरूपी व्याज मिलता है, उसका ब्रह्मैक्यरूपी किसानी का भी विस्तार होता जाता है और तब फिर भेदभाव वाली दीनता से कभी उसकी भेंट नहीं होती।[1]
जिन लोगों को यह अनुभव हो जाता है कि यह मायायुक्त सृष्टि मेरा ही रूप है और जो इसी अनुभव के हाथों से मेरे पंचभूतात्मक रूप का आश्रय लेकर सारे देवताओं के अधिष्ठान मेरे आधिदैविक स्वरूप तक आ पहुँचते हैं और फिर जिन लोगों को पूर्ण ज्ञान के सामर्थ्य से मेरा अधियज्ञ (परब्रह्मस्वरूप) दृष्टिगोचर होने लगता है, वे इस शरीर के नष्ट हो जाने पर कभी दुःखी नहीं होते और नहीं तो आयुष्य की रस्सी के टूटते ही जीवमात्र को इतनी ज्यादा व्याकुलता होती है कि उसे देखकर इर्द-गिर्द के लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगता है कि आज मानो कल्प का अन्त ही हो गया। इस प्रकार के लोगों की चाहे जो भी दशा होती हो, पर जो मेरा स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं, वे उस देहावसान काल की व्याकुलता में भी मुझे नहीं भूलते। सामान्यतः यही जानना चाहिये कि जो इतनी पूर्णता तक पहुँच जाते हैं, वही सच्चे युक्तचित्त हैं और वही सच्चे योगी हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (175-179)
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