ज्ञानेश्वरी पृ. 201

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ॥15॥
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥16॥

इस प्रकार भक्तों के अलावा बहुतेरे ऐसे ही लोग होते हैं, जिन पर अहंकार का भूत चढ़ा रहता है; इसीलिये वे लोग आत्मज्ञान का विस्मरण कर जाते हैं।

वेद का कथन है कि जिस समय व्यक्ति के अन्दर इस प्रकार के अहंकार का संचरण होता है, उस समय नियमरूपी वस्त्र की सुधि ही नहीं रहती, भावी अधःपतन की लज्जा विनष्ट हो जाती है और प्राणी न करने-योग्य कार्यों को भी करने लगता है। इस प्रकार के जीव इन्द्रियग्राम के राजमार्ग में अहंता और ममता की निरर्थक वार्ता करते हुए नानाविध विकारों का समुदाय इकट्ठा करते हैं और जब अन्त में उनके ऊपर शोक और दुःख के बराबर आघात होने लगते हैं, तब उनकी स्मृति का विनाश हो जाता है। यही माया ही इन सबका मूल कारण है। इसी के कारण वे सारे जीव मुझे भुला बैठे हैं। आत्महित का साधन करने वाले मेरे भक्तों की चार कोटियाँ हैं-आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (103-109)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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