श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
हे पाण्डुपुत्र! जैसे स्त्री को ही सर्वस्व समझने वाला व्यक्ति स्त्री को अपने अधीन नहीं कर सकता, वैसे ही जीव भी मायारूपी नदी को तैरकर पार नहीं कर सकता। इस माया नदी को वही पार कर सकते हैं, जो अनन्य भाव से केवल मुझको ही भजते हैं। बल्कि यों कहना चाहिये कि ऐसे लोगों को मायारूपी नदी के उस पार जाने की जरूरत ही नहीं होती, क्योंकि उनके समक्ष इसी पार जल नहीं रह जाता। जिन लोगों को सचमुच सद्गुरु रूपी नाव प्राप्त हो गयी है‚ जिन्होंने कसकर अनुभव का फेंटा बाँध लिया है और जिन्हें आत्मबोधरूपी नौका प्राप्त हो गयी है‚ जिन लोगों ने अहंकाररूपी गुरुतर भार का परित्याग कर संकल्प-विकल्प की लहरें तथा विषयासक्ति की प्रचण्ड धार से बचकर एकता के घाट पर पहुँचकर आत्मबोधरूपी पुल पा लिया है और तब जो शीघ्रता से नैराश्य के उस पार पहुँच गये हैं, वही लोग जल्दी-जल्दी वैराग्य की भुजाओं से तैरते हुए ‘सोऽहम्’ भाव वाली श्रद्धा के बल से आगे बढ़ते हुए अन्ततः बिना प्रयास के बड़ी सरलता से निवृत्ति-तट पर जा पहुँचते हैं। जो लोग इस मार्ग से मेरी भक्ति करते हैं, वे ही तैरकर मेरी इस माया को पार कर सकते हैं। किन्तु इस प्रकार के भक्त एकाध ही होते हैं, बहुतेरे नहीं।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (68-102)
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