श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग
इसीलिये हे पार्थ! तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि जल में जो रस-गुण है या वायु में जो स्पर्श-गुण है या चन्द्रमा और सूर्य में जो तेज-गुण है, वह मैं ही हूँ। इसी प्रकार पृथ्वी में स्थित नैसर्गिक शुद्ध गन्धगुण, आकाश में स्थित शब्द-गुण तथा वेदों में स्थित ओंकार मैं ही हूँ। मैं यह प्रमुख तत्त्व पहले ही बतला चुका हूँ कि मनुष्यों में जो मनुष्यत्व है और जिस अहंभाव के बल को पौरुष कहते हैं, वह भी मैं ही हूँ। तेज पर जो अग्नि नाम का कवच या आवरण है, उसे हटा देने पर जो केवल स्वरूप-तेज शेष रहता है, वह भी मैं ही हूँ। इस त्रिलोकी में प्राणिमात्र नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेकर अपने-अपने जीवन-निर्वाह का साधन करते रहते हैं। कोई वायु पीकर जीवन-निर्वाह करते हैं, कोई तृण खाकर जीते हैं, कोई अन्न से अपना जीवन चलाते हैं और कोई केवल जल पर ही आश्रित रहकर अपनी जीवन-यात्रा का निर्वहन करते रहते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्राणियों के जीवन के जो स्वभावतः भिन्न-भिन्न साधन हुआ करते हैं, उन समस्त साधनों में एकमात्र मैं ही अभिन्न स्वरूप से निवास करता हूँ।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (33-39)
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