ज्ञानेश्वरी पृ. 193

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययो: ।
प्रणव: सर्ववेदेषु शब्द: खे पौरुषं नृषु ॥8॥
पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु ॥9॥

इसीलिये हे पार्थ! तुम यह अच्छी तरह से जान लो कि जल में जो रस-गुण है या वायु में जो स्पर्श-गुण है या चन्द्रमा और सूर्य में जो तेज-गुण है, वह मैं ही हूँ। इसी प्रकार पृथ्वी में स्थित नैसर्गिक शुद्ध गन्धगुण, आकाश में स्थित शब्द-गुण तथा वेदों में स्थित ओंकार मैं ही हूँ। मैं यह प्रमुख तत्त्व पहले ही बतला चुका हूँ कि मनुष्यों में जो मनुष्यत्व है और जिस अहंभाव के बल को पौरुष कहते हैं, वह भी मैं ही हूँ। तेज पर जो अग्नि नाम का कवच या आवरण है, उसे हटा देने पर जो केवल स्वरूप-तेज शेष रहता है, वह भी मैं ही हूँ। इस त्रिलोकी में प्राणिमात्र नाना प्रकार की योनियों में जन्म लेकर अपने-अपने जीवन-निर्वाह का साधन करते रहते हैं। कोई वायु पीकर जीवन-निर्वाह करते हैं, कोई तृण खाकर जीते हैं, कोई अन्न से अपना जीवन चलाते हैं और कोई केवल जल पर ही आश्रित रहकर अपनी जीवन-यात्रा का निर्वहन करते रहते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्राणियों के जीवन के जो स्वभावतः भिन्न-भिन्न साधन हुआ करते हैं, उन समस्त साधनों में एकमात्र मैं ही अभिन्न स्वरूप से निवास करता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (33-39)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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