ज्ञानेश्वरी पृ. 192

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-7
ज्ञानविज्ञान योग


मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनंजय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥7॥

यह जो मृगजल हम लोगों को दृष्टिगोचर होता है, यदि इसके मूल कारण को खोजा जाय तो ज्ञात होता है कि वह कारण केवल रश्मि ही नहीं है, अपितु भानु ही है। वैसे ही, हे किरीटी! इस प्रकृति से उत्पन्न होने वाली सृष्टि का जब लय होगा और यह फिर अपनी मूल स्थिति में जाकर ज्यों-की-त्यों समा जायगी, तब यह केवल मेरे ही रूप की हो जायगी; यानी यह मुझमें ही विलीन हो जायगी और तब केवल मेरा ही रूप रह जायगा। इस प्रकार जो यह विश्व उत्पन्न होकर फिर विलीन हो जाता है, वह सदा मुझमें ही रहता है। जिस प्रकार सूत्र में मणियाँ गुँथी रहती हैं, उसी प्रकार यह विश्व भी मुझमें ही रहता है। जैसे स्वर्णनिर्मित मणियाँ स्वर्ण के ही सूत्र में गुँथी रहती हैं, वैसे ही इस विश्व को बाह्याभ्यन्तर सर्वतः मैं ही धारण किये रहता हूँ।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (29-32)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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