श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर
अध्याय-6
आत्मसंयम योग
अथवा जो योगी ज्ञानाग्निहोत्री हैं, जो परब्रह्म के उपदेशक हैं, जो सुखरूपी क्षेत्र के जमीनदार हैं, जो महासिद्धान्त का रहस्य जानकर तीनों लोकों में राज्य करते हैं, जो संतोषरूपी वन में कूकने वाली कोयल की ही भाँति प्रतीत होते हैं और जो सदा फल देने वाले विवेकरूपी वृक्ष के मूल में ही बैठे रहते हैं, उन योगियों के कुल में वे योगभ्रष्ट लोग जन्म लेते हैं। जिस समय उनकी छोटी-सी देहाकृति प्रकट होती है, उसी प्रकार आत्मज्ञान का उषःकाल भी होता है। जैसे सूर्योदय होने से पूर्व उसका प्रकाश प्रकट होता है, वैसा ही प्रौढ़ावस्था आने के पूर्व ही और परिपक्वावस्था की उपेक्षा किये बिना ही बाल्यावस्था में ही उसे सर्वज्ञता वरण कर लेती हैं। उस परिपक्व बुद्धि के मिलते ही उनके मन को सारी विद्याएँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं और तब उनके सुख से सब शास्त्र आप-ही-आप प्रकट होते हैं। जिस प्रकार का जन्म पाने के लिये स्वर्ग में विराजमान देवता भी ध्यान लगाकर जप-होम आदि करते हैं तथा मृत्युलोक के महान् ऐश्वर्य की भाटों के समान स्तुतियाँ करते हैं, हे पार्थ! वही जन्म उस योगभ्रष्ट व्यक्ति को प्राप्त होता है।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (449-456)
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