ज्ञानेश्वरी पृ. 184

श्रीज्ञानेश्वरी -संत ज्ञानेश्वर

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अध्याय-6
आत्मसंयम योग


अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् ।
एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ॥42॥
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहकिम् ।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥43॥

अथवा जो योगी ज्ञानाग्निहोत्री हैं, जो परब्रह्म के उपदेशक हैं, जो सुखरूपी क्षेत्र के जमीनदार हैं, जो महासिद्धान्त का रहस्य जानकर तीनों लोकों में राज्य करते हैं, जो संतोषरूपी वन में कूकने वाली कोयल की ही भाँति प्रतीत होते हैं और जो सदा फल देने वाले विवेकरूपी वृक्ष के मूल में ही बैठे रहते हैं, उन योगियों के कुल में वे योगभ्रष्ट लोग जन्म लेते हैं। जिस समय उनकी छोटी-सी देहाकृति प्रकट होती है, उसी प्रकार आत्मज्ञान का उषःकाल भी होता है। जैसे सूर्योदय होने से पूर्व उसका प्रकाश प्रकट होता है, वैसा ही प्रौढ़ावस्था आने के पूर्व ही और परिपक्वावस्था की उपेक्षा किये बिना ही बाल्यावस्था में ही उसे सर्वज्ञता वरण कर लेती हैं। उस परिपक्व बुद्धि के मिलते ही उनके मन को सारी विद्याएँ स्वतः प्राप्त हो जाती हैं और तब उनके सुख से सब शास्त्र आप-ही-आप प्रकट होते हैं। जिस प्रकार का जन्म पाने के लिये स्वर्ग में विराजमान देवता भी ध्यान लगाकर जप-होम आदि करते हैं तथा मृत्युलोक के महान् ऐश्वर्य की भाटों के समान स्तुतियाँ करते हैं, हे पार्थ! वही जन्म उस योगभ्रष्ट व्यक्ति को प्राप्त होता है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (449-456)

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
पहला अर्जुन विषाद योग 1
दूसरा सांख्य योग 28
तीसरा कर्म योग 72
चौथा ज्ञान कर्म संन्यास योग 99
पाँचवाँ कर्म संन्यास योग 124
छठा आत्म-संयम योग 144
सातवाँ ज्ञान-विज्ञान योग 189
आठवाँ अक्षर ब्रह्म योग 215
नवाँ राज विद्याराज गुह्य योग 242
दसवाँ विभूति योग 296
ग्यारहवाँ विश्व रूप दर्शन योग 330
बारहवाँ भक्ति योग 400
तेरहवाँ क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 422
चौदहवाँ गुणत्रय विभाग योग 515
पंद्रहवाँ पुरुषोत्तम योग 552
सोलहवाँ दैवासुर सम्पद्वि भाग योग 604
सत्रहवाँ श्रद्धात्रय विभाग योग 646
अठारहवाँ मोक्ष संन्यास योग 681

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