गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द10.बुद्धियोग
समाधि की कसौटी है सब कामनाओं का बहिष्कार, किसी भी कामना का मन तक न पहुँच सकना, और यह वह आंतरिक अवस्था है, जिससे वह स्वतंत्रता उत्पन्न होती है, आत्मा का आंनद अपने ही अंदर जमा रहता है और मन सम, स्थिर तथा ऊपर की भूमिका में ही अवस्थित रहता हुआ आकर्षणों और विकर्षणों से तथा बाह्म जीवन के घड़ी-घड़ी बदलने वाले आलोक अंधकार और तूफानों तथा झंझटों से निर्लिप्त रहता है। वह बाह्य कर्म करते हुए भी अंतर्मुख रहता है; बाह्यपदार्थों को देखते हुए भी आत्मा में ही एकाग्र होता है; दूसरों की दृष्टि में सांसारिक कर्मों में लगा हुआ प्रतीत होने पर भी सर्वथा भगवान् की ओर लगा रहता है। अर्जुन औसत मनुष्य के मन में उठने वाला यह प्रश्न करता है कि इस महान् समाधि का वह कौन-सा लक्षण है जो बाह्म, शारीरिक और व्यावहारिक रूप में जाना जा सके; समाधिस्थ मनुष्य कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है? इस तरह के कोई लक्षण नहीं बताये जा सकते और न भगवान् गुरु की बतलाने का प्रयास करते है; क्योंकि समाधि की जो कोई कसौटी हो सकती है, वह आंतरिक है और कसकर देखने की बहुत-सी विरोधी शक्तियां हैं, और ये भी मनोगत हैं। मुक्त पुरुश का महान लक्षण समता है और समता की पहचान के लिये जो अति स्पष्ट चिह्म है वे भी आंतरिक हैं। “दु:ख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख की इच्छा जिसकी जाती रही है, राग, भय और क्रोध जिसका निकल गया है, वही मुनि स्थितप्रज्ञ है”[1]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2.46
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