गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द9. सांख्य, योग और वेदांत
अज्ञानी ही देवताओं को भजते हैं, वे नहीं जानते कि इन सब देव-रूपों में अज्ञात रूप से वे किसको भज रहे हैं क्योंकि चाहे अज्ञान की अवस्था में ही क्यों न हो, पर वे भजते हैं उसी “एक” को, उसी ईश्वर को, उसी एकमात्र देव को और यह वही है जो इनका हव्य ग्रहण करता है। इसी ईश्वर के प्रति यज्ञ, को जीवन की सारी शक्तियों और कर्मों के उस सच्चे यज्ञ को, भक्तिभाव के साथ, निष्काम होकर, उसी के लिये लोक-कल्याण के लिये अर्पण करना होगा। चूंकि वेदवाद इस सत्य को ढांक देता है और अपने विधि- विधानों की गांठ लगाकर मनुष्य को त्रिगुण के कर्म में बांध डालता है, इसलिये वेदवाद की तीव्र भर्त्सना करनी पड़ी और उसे इतने रूखेपन के साथ एक किनारे रख देना पड़ा; पर उसकी केंद्रित भावना नष्ट नहीं की गयी है; उसे रूपांतरित और समुन्नत किया गया है, उसे सच्चे अध्यात्मिक अनुभव के और मोक्ष–साधन-मार्ग के एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग में परिणत कर दिया गया है। ज्ञान के संबध में वेदांत का जो सिद्धांत है उसमें ठीक ऐसी ही कठिनाइयां उपस्थित नहीं होती। गीता इस सिद्धांत को तुरत और पूरे तौर पर अपनाती है और पहले छः अध्यायों में सर्वत्र सांख्यों के अचल, अक्षर, किंतु बहुपुरुष के स्थान पर वेदांतियों के अक्षर एकमेवाद्वितीय, विश्वव्यापक ब्रह्म को धीरे से लाकर बैठा देती है। इन अध्यायों में सर्वत्र, निष्काम कर्म को ज्ञान का परमावश्यक अंग बतलाते हुए भी, ज्ञान और बह्मानुभूति को मोक्ष का सर्वप्रधान और अनिवार्य साधन माना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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