गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 21.परम रहस्य की ओर
यही समग्र ज्ञान है जिसमें हृदय की अगाध दृष्टि मन की चरम अनुभूति को पूर्ण बनाती है, समग्रं मां ज्ञात्वा। गीता कहती है, "मैं जो कुछ और जितना कुछ भी हूँ उसे वह जान लेता है, मेरी सत्ता के संपूर्ण सत्य और तत्त्व में वह मुझे जान लेता है",[1] यावान् यश्चास्मि तत्त्वत:। यह समग्र ज्ञान व्यक्ति में विद्यमान भगवान का ज्ञान है यह मनुष्य के हृदय में गुप्त रूप से विराजमान ईश्वर की पूर्ण अनुभूति है, वे ईश्वर अब उसकी सत्ता के परम आत्मा के रूप में प्रकाशित हुए हैं उसकी समस्त प्रदीप्त चेतना के सूर्य, उसके संपूर्ण कर्मों के प्रभु और शक्तिप्रदाता, उसकी अंतरात्मा के समस्त प्रेम और आनंद के दिव्य स्त्रोत, उसकी पूजा और आराधना के पात्र एक दिव्य प्रेमी और प्रियतम के रूप में प्रकट हुए है। यह विश्व-व्याप्त भगवान का भी ज्ञान है, उन सनातन का ज्ञान है जिनसे सब कुछ उत्पन्न होता है, जिनमें सब कुछ निवास करता और अपना अस्तित्व धारण करता है जगत के आत्मा और परम सत्ता का ज्ञान है, उन वासुदेव का ज्ञान है जो, यहाँ जो कुछ भी है वह सब बने हुए हैं, उन जगदीश्वर का ज्ञान है जो प्रकृति के कर्मों की अध्यक्षता करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18.55
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