गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 18.त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म
जिस चर्चा के साथ गीता इस अध्याय का उपसंहार करती है वह प्रथम दृष्टि में दुर्बोध प्रतीत होती है। वह कहती है ओम तत सत-यह सूत्र उन ब्रह्म की त्रिविध परिभाषा है जिन्होंने पुराकाल में ब्राह्मणों, वेदों और यज्ञों की सृष्टि की थी और इसी सूत्र में उनका समस्त हार्द निहित है। तत निरपेक्ष सत्ता का द्योतक है। सत परम और विश्वयम सत्ता के मूलतत्त्व का द्योतक है। ओम त्रिविध ब्रह्म का, बहिर्मुख,अंतर्मुख या सूक्ष्म तथा अतिचेतन कारण-पुरुष का प्रतीक हैं। अ,उ,म-प्रत्येक अक्षर इन तीन में से एक-एक को आरोहण-क्रम मे द्योतित करता है और अपने समूचे रूप में यह पद उस तुरीय अवस्था का बोधक है जो निरपेक्ष सत्ता की ओर उठ जाती है। ओम् श्रीगणेश करने का पद है जो समस्त यज्ञ, समस्त दान, समस्त तप के आरंभ में मंगलाचरण तथा अनुमति के रूप मे उच्चारित किया जाता है; यह इस बात को स्मरण कराता है कि हमें अपने कर्म को अपनी अंतःसत्ता मे त्रिविध भगवान् का प्रकाश करने वाला बनाना होगा और उसे अपनी भावना तथा लक्ष्य में भगवान् की ओर ही फेरना होगा। मुमुक्षुजन इन कर्मों को फल की कामना के बिना और केवल अपनी प्रकृति के पीछे अवस्थित निरपेक्ष भगवान् की परिकल्पना, अनुभुति और उनके आनंद के साथ ही संपन्न करते हैं। अपने कर्मों की इस पवित्रता एवं निर्वैयक्तिकता के द्वारा, उस उच्च निष्कामता, इस बृहत् अहंशून्यता तथा आध्यात्मिक समृद्धि के द्वारा वे इन भगवान् की ही खोज करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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