गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 18.त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म
उसके मन के निकट व्यावहारिक सत्य भ्रमात्मक है, या कम-से-कम यह केवल अस्थायी तथा आंशिक रूप में सत्य है जबकि आधुनिक प्रयोगवाद इसे वास्तविक सत्य मानता है या कम-से-कम वह इसे एकमात्र स्वीकार्य सत्य मानता है क्योंकि केवल यही एक ऐसा सत्य है जिसे हम व्यवहार में ला सकते तथा जान सकते हैं। परंतु गीता के लिये निरपेक्ष ब्रह्म भी परम पुरुष है, और पुरुष सदैव चिन्मय आत्मा है, यद्यपि उसकी सर्वोच्च चेतना, या यूं कहें कि उसकी अतिचेतना-और इसी प्रकार हम कर सकते हैं कि उसकी निश्चेतना नामक निम्नतम चेतना-हमारी उस मानसिक चेतना से अत्यंत भिन्न वस्तु है जिसे हम एकांतिक रूप से चेतना का नाम देने के अभ्यस्त हैं। उस उच्चतम अतिचेतना में अमरत्व का एक सर्वोच्च सत्य और धर्म है, सत्ता की एक महत्तम दिव्य सरणि है जो कि सनातन और अंनत सत्ता की एक धारा है। जीवन की वह सनातन सरणि और सत्ता का वह दिव्य भाव पुरुषोत्तम की नित्य सत्ता में पहले से ही विद्यमान है। परंतु अब हम उसे योग के द्वारा यहाँ अपनी संभूति में भी सृष्ट करने का यत्न कर रहे हैं; हम भगवान बनने का यत्न कर रहे हैं जैसे वे हैं वैसे ही बनने के लिये, मदभाव के लिये यत्न कर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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