गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 18.त्रिगुण, श्रद्धा और कर्म
तामसिक प्रकृति की अपेक्षा राजसिक प्रकृति सदैव अधिक बलशाली तथा अधिक प्रबलतया अनुप्राणित होती है और उसके अंदर संभावनाएं भी अपेक्षाकृत अधिक होती हैं। परंतु शास्त्र का परित्याग करने की यह प्रेरणा मूलतः सात्त्विक भी हो सकती है; उस विशालतर एवं महत्तर आदर्श की ओर झुकी हुई हो सकती है, जो हमें अपनी सत्ता तथा विश्व-सत्ता के अद्यावधि उपलब्ध सत्य की अपेक्षा पूर्णतर एवं बृहत्तर सत्य के अधिक निकट ले जायेगा और अतएव उस उच्चतम विधान के भी अधिक निकट ले जायेगा जो दिव्य स्वातंत्र्य के साथ एकीभूत है। और क्रियात्मक दृष्टि से इस प्रकार की गति या प्रेरणा साधारणतः हमारी अपनी सत्ता के किसी विस्मृत सत्य को अधिकृत करने या अब तक अनुपलब्ध या अचरितार्थ सत्य की ओर अग्रसर होने का प्रयास होती है। यह अनियंत्रित प्रकृति की उच्छृंखल चेष्टा नहीं होती; यह आध्यात्मिक दृष्टि से समीचीन होती है और हमारी आध्यात्मिक प्रगति के लिये आवश्यक और चाहे शास्त्र अभी तक एक प्राणवंत वस्तु हो तथा औसत मनुष्य के लिये सर्वश्रेष्ठ विधान हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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