गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य 16.आध्यात्मिक कर्म की परिपूर्णता
व्यक्तिरूप जीव तथा निर्व्यक्तिक ब्रह्म या आत्मा के परे वह उन विश्वातीत पुरुषोत्तम को प्राप्त करता है जो निर्व्यक्तिकता में अक्षर हैं और व्यक्तित्व में अपने-आपको चरितार्थ करते हैं और इन दो भिन्न प्रकार के आकर्षणों के द्वारा हमें अपनी ओर खींचते हैं। मुक्त साधक भगवान के प्रति अपनी अंतरात्मा के प्रेम और प्रीति के द्वारा तथा कर्मों के स्वामी के प्रति अपने अंतरस्थ संकल्प की आराधना के द्वारा व्यक्तिगत रूप में उस उच्चतम परम पद की ओर उठ जाता है, इन परात्पर और विश्वमय परमेश्वर की स्वयंस्थित, समग्र, घनिष्ट और अंतरंग सत्ता में उसे जो आनंद प्राप्त होता है उसके द्वारा उसके निर्व्यक्तिक विश्व-ज्ञान की शांति एवं विशालता पराकाष्ठा को पहुँच जाती है। यह आनंद उसके ज्ञान को महिमामय बना देता है तथा उसे परमात्मा के आत्मगत एवं अभिव्यक्तिगत शाश्वत आनंद से एकीभूत कर देता है; यह भागवत पुरुष की अतिव्यक्तिकता में उसके व्यक्तित्व को भी सर्वागसंपन्न बना देता है। और उसकी प्रकृतिगत सत्ता एवं कर्म को शाश्वत सौन्दर्य, नित्य सामंजस्य तथा सनातन प्रेम और आनंद के साथ एकमय कर देता है। परंतु इस सब परिवर्तन का अर्थ है निम्न मानव-प्रकृति को छोड़कर, पूर्ण रूप से, उच्चतर दिव्य प्रकृति में चले जाना। यह अपनी संपूर्ण सत्ता को या, कम-से-कम, संकल्प, ज्ञान तथा वेदन करने वाली अपनी सारी मनोमय सत्ता को, हम जो कुछ हैं उससे ऊपर उठाकर किसी उच्चतम अध्यात्म-चेतना में, सत्ता की किसी तृप्तिकारी पूर्णतम शक्ति में, आत्मा के किसी गंभीरतम एवं विशालतम आनंद में ले जाना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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