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गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द भाग-2
खंड-2 : परम रहस्य
14.त्रैगुणातीत्य
उसकी आत्मा तो ऊर्ध्व में अविचल है उसकी अध्यात्मसत्ता अस्थिर वस्तुओं की चंचल परिवर्तनशीलता में भाग नहीं लेती। यह ब्राह्यी स्थिति की निर्व्यक्तिकता है; क्योंकि वह उच्चतर तत्त्व, महत्तर विशाल उच्चतर चैतन्य अर्थात वह कूटस्थ ही अक्षर ब्रह्य है। परंतु फिर भी यहाँ स्पष्ट रूप से एक द्वैत स्थिति है, सत्ता दो विपरीत भागों में अक्षर और क्षर में खंडित है, अक्षर पुरुष या ब्रह्य में मुक्त हुई आत्मा अमुक्त क्षर प्रकृति के व्यापार का निरीक्षण करती है। क्या कोई इससे महान स्थिति नहीं है, पूर्णतर पूर्णता का कोई तत्त्व नहीं है, अथवा क्या यह विभाजन ही देह में प्राप्य उच्चतम चेतना है, और क्या इस क्षर प्रकृति का तथा प्रकृति के अंदर देह-धारण से उत्पन्न गुणों का त्याग और ब्रह्म की निर्व्यक्तिकता तथा नित्य शांति में लय ही योग का लक्ष्य है? क्या व्यष्टि पुरुष का यह लक्ष्य ही परम मोक्ष है? ऐसा प्रतीत होता है कि कोई और वस्तु भी है; क्योंकि गीता उपसंहार के रूप में कहती है-सदा इसी एक अंतिम स्वर को पुनः पुनः गुंजाती है कि ‘‘जो मनुष्य अविचल प्रेम एवं भक्ति के साथ ‘‘मेरा’’ भजन करता है और ‘‘मुझे’’ प्राप्त करने के लिये यत्न करता है वह भी तीन गुणों को पार कर जाता है, वह भी ब्रह्मभाव प्राप्त करने के लिये तैयार है।” ‘‘मेरा’’ और ‘‘मुझे’’ शब्दों द्वारा सूचित यह ‘‘मैं’’ पुरुषोत्तम है जो शांत ब्रह्म, अमृतत्त्व, अक्षय अध्यात्म-जीवन, शाश्वत धर्म तथा परम आनंद का आधार है।
इस प्रकार, एक ऐसी स्थिति भी है जो अक्षर की शांति से अधिक महान है क्योंकि वह गुण के परस्पर-विरोध का अविचल रूप में निरीक्षण करती हैं। ब्रह्य की अक्षरता के ऊपर एक उच्चतम आध्यात्मिक अुनभूति और ‘प्रतिष्ठा’ (सबका आश्रयभूत तत्त्व) है, कर्मविषयक राजसिक प्रेरणा, प्रवृत्ति से अधिक महान एक शाश्वत धर्म है, राजसिक दुःख के स्पर्श से परे तथा सात्त्विक सुख से अतीत एक चरम-परम आनंद है, और ये चीजें पुरुषोत्तम की सत्ता और शक्ति में निवास करने से ही प्राप्त एवं अधिकृत की जा सकती हैं। पर, क्योंकि इसकी प्राप्ति भक्ति के द्वारा होती है, इसकी स्थिति होगी वह दिव्य आनंद जिसमें निरतिशय प्रेम[1] का मिलन तथा उपलब्धिमय एकत्व में उठ जाना ही आध्यात्मिक पूर्णता की पराकष् तथा अमृतत्त्वदायक नित्य धर्म की परिपूर्ति होगी।
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