गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-2: परम रहस्य
13.क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ
इसके बाद गीता हमें बताती है कि आध्यात्मिक ज्ञान क्या है, अथवा यूं कहें कि वह हमें यह बताती है कि ज्ञान की शर्तें क्या हैं, तथा उस मनुष्य के लक्षण एवं चिहृ क्या हैं जिसकी आत्मा आंतरकि ज्ञान की ओर मुड़ी होती है। ये लक्षण ज्ञानी के माने हुए तथा परंपरागत गुण हैं, जैसे बाह्य तथा सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति से उसके हृदय की प्रबल पराड्.मुखता, उसकी अंतर्मुख तथा ध्यानशील आत्मा, उसका स्थिर मन तथा शांत समत्व, परम अंतस्तम सत्यों तथा वास्तविक और सनातन वस्तुओं पर उसके विचार तथा संकल्प की स्थिर एकाग्रता। सबसे पहला लक्षण है एक विशेष प्रकार की नैतिक अवस्था, प्राकृत सत्ता का सात्त्विक नियंत्रण। सांसारिक मान और दंभ का नितांत अभाव उसके अंदर स्थिर रूप से प्रतिष्ठित होता है और इसके साथ ही होती है ऋजु आत्मा, क्षमाशील, चिर-सहिष्णु और दयालु हृदय, तन और मन की शुद्धता, प्रशांत स्थिरता और दृढ़ता, आत्म-संयम, निम्न प्रकृति पर प्रभुत्वपूर्ण शासन और गुरु के प्रति हार्दिक भक्ति, भले ही वे गुरु अंतःस्थ भगवान् हों या कोई मावन जो दिव्य ज्ञान के मूर्त विग्रह हों-गुरु की जो भक्ति की जाती है उसका यही तात्पर्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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