गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
परंतु इस अपरा प्रकृति में, जिसमें हम रहते हैं जीव चुनाव और सांत निर्धारण के सिद्धांत का अनुसरण करता है, और यहाँ जन्म में जो शक्ति-धारा-, जो गुण या आध्यात्मिक तत्त्व वह अपने साथ लाता है या अपने आत्म-प्राकट्य के बीज के रूप में प्रस्तुत करता है वह उसके स्वभाव का क्रियाशील अंश, उसकी आत्म-संभूति का नियम बन जाता है और उसके स्वधर्म अर्थात् कर्म के नियम का निर्धारण करता है। और, यदि यही सब कुछ होता तो कोई कठिनाई या परेशानी न होती; मनुष्य का जीवन भगवान् का ज्योतिर्मय विकास होता। परंतु हमारे जगत् की यह निम्नतर शक्ति अज्ञान, अहंभाव और तीन गुणों की प्रकृति है। क्योंकि यह अहंभाव की प्रकृति है, जीव अपने को पृथक्कारी अहं समझता है; वह अहंभावमय ढंग से, दूसरों की पृथक्कारी अस्तित्व–इच्छा के साथ संघर्ष तथा संसर्ग में आने वाली एक पृथक्कारी अस्तित्व-इच्छा के रूप में, अपनी आत्म-अभिव्यक्ति साधित करता है। वह जगत को संघर्ष के द्वारा अधिकृत करने का यत्न करता है, एकता और समस्वरता के द्वारा नहीं; वह अहं-केंद्रिक विरोध-वैषम्य पर बल देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7.5
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