गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
9.विभूति और सिद्धांत
तो भी, इस संसार में कार्यरत गुण और शक्तियां, जो मनुष्य, पशु, पौधे तथा जड़ पदार्थ में नाना प्रकार से क्रिया कर रही हैं, सदा ही दिव्य गुण और शक्तियां हैं, भले ही वे कोई रूप क्यों न धारण करें। सभी शक्तियां और गुण परमेश्वर की ही शक्तियां हैं। प्रत्येक उनकी दिव्य प्रकृति से उद्भूत होती हैं, यहाँ निम्नतर प्रकृति में अपनी स्व-अभिवयक्ति के लिये कार्य करती हैं, इन बाधक अवस्थाओं में अपने ख्यापन तथा संसिद्ध मूल्यों की सामर्थ्य बढ़ाती है और, जैसे ही यह अपनी स्व-शक्ति के शिखरों पर पहुँचती है, यह भगवान् के प्रत्यक्ष प्रकटीकरण के निकट आ जाती है और अपने-आपको परमोच्च, आदर्श दिव्य प्रकृति में निहित अपने निरपेक्ष रूप की ओर उत्प्रेरित करती है। क्योंकि, प्रत्येक शक्ति परमेश्वर की ही अंशसत्ता और शक्ति है, इसलिये शक्ति का विस्तार तथा स्व-प्राकट्य सदा परमेश्वर का ही विस्तार एवं प्राकट्य होता है। कोई यहाँ तक कह सकता है कि अपनी तीव्रता के एक विशेष स्थल पर हमारे अंदर की प्रत्येक शक्ति, ज्ञान की शक्ति, संकल्प की शक्ति, प्रेम की शक्ति, आनंद की शक्ति एक ऐसा विस्फोट उत्पन्न कर सकती है जो निम्नतर रूप-रचना के आवरण को छिन्न-भिन्न कर डालता है और उस शक्ति को उसकी पृथक्कारी क्रिया से हटाकर दिव्य पुरुष की अनंत स्वतंत्रता और शक्ति के साथ उसके एकत्व में मुक्त कर देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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