गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता को सर्वोत्कृष्ट भावनाएं हैं। आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अंदर रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा मे जीयो; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूताणि में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलने वाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो। गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल इसलिये कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी जाये। परंतु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन का अस्तित्व उनकी अपनी वजह से ही है, किसी के पुछल्ले बनकर नहीं। और, व्यवहार में हमारे अंदर जो कुछ निम्न हैं उसको उच्च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न कि लिये रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे। इसलिये आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जर्बदस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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