गीता-प्रबंध -श्री अरविन्द4.उपदेश का कर्म
गीता निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सीखाती है, सर्वधर्मान् परित्यज्य, एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को ही कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था। इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते हुए भी कर्म-संन्यास का निषेद नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक ही साधन स्वीकार करती है। यदि कर्म और जीवन और सब कर्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिये प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता। भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते। परंतु यहाँ एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है। आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है। तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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