गीता-प्रबंध: भाग-2 खंड-1: कर्म, भक्ति और ज्ञान का समन्वयव
2. भक्ति -ज्ञान -समन्वय
पर अब गीता उस कर्मयोगी के लिये जिसने अपने कर्म को ज्ञानयोग के साथ एक कर लिया है, एक और, इससे भी बड़ी चीज की आवश्यकता बतलाती है। अब उसे केवल ज्ञान और कर्म की ही मांग नहीं की जाती बल्कि भक्ति की भी-भगवान् की ओर सच्ची लगन, उनकी पूजा, उनसे मिलने की अंतरात्मा की उत्कंठा भी चाही जाती है। यह मांग अभी तक उतने स्पष्ट शब्दों में तो नहीं प्रकट की गयी थी, पर जब गुरु ने उसके योग को इस आवश्यक साधन की ओर फेरा था कि सब कर्मों को अपनी सत्ता के स्वामी श्रीभगवान् के लिये यज्ञरूप से करना होगा और इसकी परिणति इस बात में की थी कि सब कर्मों को केवल ब्रह्मापर्ण ही नहीं बल्कि ब्रह्मभाव से परे जाकर उन सत्ताधीश्वर को समर्पित करना होगा जो हमारे सब संकल्पों और शक्तियों के मूल कारण हैं, तभी शिष्य का मन भक्ति की इस मांग के लिये तैयार किया जा चुका था। वहाँ जो बात गुप्त रूप से अभिप्रेत थी वही अब वही अब सामने आ गयी है और इससे हम गीता के उद्देश्य को भी और अधिक पूर्णता के साथ समझ सकते हैं। अब परस्पर-आश्रित तीन वृत्तियां हमारे सामने हैं जो हमें हमारे प्राकृत भाव से छुड़ाकर भागवत और ब्रह्मभाव में आगे बढ़ा सकती हैं। गीता कहती है, ‘‘द्वन्द्वों के मोह से जो रागद्वेष से उत्पन्न हुआ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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